द्वितीय विश्व युद्ध में मेरे पिता ने अमरीकी सेना में दक्षिणी प्रशांतसागरीय क्षेत्र में सेवा दी l उन दिनों में, पिता जी ने यह कहकर धर्म को एक ओर किया, “मुझे बैसाखी नहीं चाहिए l” यद्यपि वह दिन आया जब आत्मिक बातों के प्रति उनका नजरिया सर्वदा के लिए बदल जाने वाला था l माँ तीसरे बच्चे की प्रसव पीड़ा में थी, और हम दो भाई एक भाई या बहन के आने की आशा के साथ सोने चले गए l सुबह हमने उत्तेजित होकर पिता से पूछा, “बेटा है या बेटी?” उन्होंने उत्तर दिया, “छोटी लड़की थी किन्तु वह मृत जन्म ली थी l” हम सब अपनी हानि के कारण रोने लगे l

प्रथम बार, पिता जी अपना टूटा हृदय लेकर प्रार्थना में यीशु के पास गए l उस समय उन्होंने परमेश्वर की ओर से अभिभूत करनेवाली शांति और सांत्वना प्राप्त की, यद्यपि उनकी बेटी कभी नहीं लौटती l जल्द ही उन्होंने बाइबल में रूचि लेकर उस परमेश्वर से प्रार्थना करने लगे जो उनके टूटे हृदय को चंगा कर रहा था l वर्षों के साथ उनका विश्वास बढ़ता गया l वह यीशु का मजबूत अनुयायी बनकर, अपने चर्च में बाइबल अध्ययन शिक्षक और एक अगुवा के रूप में सेवा दीl

यीशु निर्बलों के लिए बैसाखी नहीं है l वह नए आत्मिक जीवन का उद्गम है! हमारे टूटेपन में, वह हमें नया और पूर्ण बनता है l