अपनी एक सहेली की शिकायत करने पर कि उसके चुनाव उसे भारी पाप में ले जा रहे हैं और मैं उससे प्रभावित हूँ, जिस स्त्री के संग मैं साप्ताहिक प्रार्थना करती थी, ने मेरा हाथ थामकर बोली, “आओ हम हमारे लिए प्रार्थना करें l”
मैंने भौं सिकोड़ा l “हम सब?”
उसने कहा, “हाँ, तुम्हारे अनुसार यीशु हमारी पवित्रता का मानक है, इसलिए हमें अपने पापों की तुलना दूसरों के पापों से नहीं करनी चाहिए l”
मैंने उत्तर दिया, “यह सच्चाई थोड़ी कठोर है, किन्तु सच l मेरा आलोचनात्मक आचरण और आत्मिक अहंकार उसके पाप से बेहतर या बुरा नहीं है l”
“और तुम्हारी सहेली की बात करके हम बकवाद कर रहे हैं l इसलिए —.”
“हम पाप कर रहे हैं l” मैंने सिर झुका लिए l “कृपया हमारे लिए प्रार्थना करें l”
लूका 18 में यीशु ने मंदिर में दो व्यक्तियों की बिल्कुल भिन्न प्रार्थनाएँ बतायीं (पद.9-14) l फरीसी की तरह, हम दूसरों के साथ अपनी तुलना और बड़ाई करके (पद.11-12) दूसरों के जीवन का न्याय और उनको बदलने की जिम्मेदारी या ताकत रखने का दावा कर सकते हैं l
किन्तु चुंगी लेनेवाले की तरह यीशु को पवित्र जीवन का आदर्श मानकर और उसकी भलाई का प्रत्यक्ष सामना करके परमेश्वर के अनुग्रह की हमारी ज़रूरत बढ़ जाती है(पद.13) l और हम व्यक्तिगत तौर पर प्रभु के प्रेमी करुणा और क्षमा का अनुभव करके करुणा चाहने और देने हेतु पूर्णरूपेण बदल जाएंगे l
अपने लिए करुणा की ज़रूरत महसूस करके,
हम इच्छापूर्वक दूसरों को करुणा दे पाएंगे l