फिलोसोफी की कक्षा के दौरान प्रोफेसर के विचारों के बारे किसी छात्र ने भड़काऊ टिप्णियाँ कीं। अन्य छात्र हैरान थे कि, शिक्षक ने उसका धन्यवाद किया और अगली टिपणी पर बढ़ गए।  पूछने पर कि उन्होंने उस छात्र को जवाब क्यों नहीं दिया वे कहने लगे, “मैं अन्त अपनी बात से ना करने के अनुशासन का अभ्यास कर रहा हूँ।”

यह शिक्षक परमेश्वर को प्रेम और आदर करते थे, और प्रेम दिखा कर वह विनम्र भावना का श्रेष्ठ उदाहरण बन गए। मुझे एक अन्य शिक्षक की याद आगई-सभोपदेशक की पुस्तक के लेखक। जिन्होंने कहा कि जब हम परमेश्वर के भवन में जाएं तब हमें सावधानी बरतनी चाहिए, हमें बातें करने और अपने मन में उतावली न करके “सुनने के लिए समीप जाना चाहिए”। ऐसा करके हम स्वीकार करते हैं कि परमेश्वर प्रभु हैं और हम उनकी रचना हैं। (सभोपदेशक 5:1-2)

आप परमेश्वर के भवन में कैसे आते हैं? यदि आपको कुछ सुधार की आवश्यकता है, तो क्यों ना कुछ समय प्रभु की महिमा और महानता पर विचार करने में बिताएं? उनके अंतहीन विवेक, सामर्थ, और उपस्थिति पर विचार करके, हमारे प्रति उनके उमड़ते प्रेम से हम आदर भाव का अनुभव कर सकते हैं। विनम्रता के इस भाव से, हमें भी अपनी बात से अन्त नहीं करना चाहिए।