अपनी दो साल की बेटी के साथ शुभरात्रि की प्रार्थना के बाद, एक प्रश्न से मेरी पत्नी आश्चर्यचकित हो गई। “माँ, यीशु कहाँ हैं?”

लूएन ने जवाब दिया, “यीशु स्वर्ग में और वह हर जगह हैं, यहीं हमारे साथ। अगर तुम उन्हें आने का निमंत्रण दोगी तो वो तुम्हारे दिल में भी हो सकते हैं।”

“मैं चाहती हूँ कि यीशु मेरे दिल में आएं।”
“समय आने पर तुम उनसे कह सकती हो।”
“मैं अभी उन्हें मेरे दिल में आने के लिए कहना चाहती हूँ।”
तो हमारी नन्हीं बेटी ने कहा, “यीशु, कृपया मेरे दिल में आईए और मेरे साथ रहिए।” और इस प्रकार उनके साथ उसके विश्वास की यात्रा आरम्भ हो गई।

जब यीशु के चेलों ने पूछा, कि स्वर्ग के राज्य में बड़ा कौन है इस पर उन्होंने एक बालक को पास बुलाकर उनके बीच खड़ा किया। (मत्ती 18:1-2) “यदि तुम न फिरो और बालकों के समान न बनों…”। (3-5)

यीशु की दृष्टि से एक विश्वासी बालक को हम अपने विश्वास के प्रतीक के रूप में देख सकते हैं। हमें उन सभी को ग्रहण करने को कहा गया है जो अपने दिलों में उसे ग्रहण कर लेते हैं। “बालकों को मेरे पास आने दो,…स्वर्ग का राज्य ऐसों ही का है” (19:14)।