मैं उस समय को नहीं भूल सकता जब मुझे बिली ग्रैहम के साथ रात्रि भोजन करने का अवसर मिला l मैं सम्मानित हुआ किन्तु क्या बोलना उचित होगा के विषय कुछ घबराहट भी हुई l मेरी सोच थी उनकी सेवा में उनको सबसे अधिक क्या अच्छा लगा पूछकर बातचीत को आरंभ करना अच्छा था l उसके बाद मैं खुद ही अजीब तरीके से उस प्रश्न का संभावित उत्तर देने लगा l राष्ट्राध्यक्षों, राजाओं, और रानियों को जानना? या संसार के लाखों लोगों को सुसमाचार सुनाना?

इससे पहले कि मैं सलाह देना बंद करता, रेव्ह. ग्रैहम ने मुझे रोक दिया l बगैर हिचकिचाहट के उन्होंने कहा, “यह यीशु के साथ मेरी संगति रही है l उसकी उपस्थिति का अनुभव करना, उस बुद्धिमत्ता प्राप्त करना, उसका मार्गदर्शन प्राप्त करना, यही मेरा सर्वोत्तम आनंद रहा है l” उसी क्षण मैं निरुत्तर हुआ और चुनौती प्राप्त किया l निरुत्तर इसलिए क्योंकि मैं इस बात से निश्चित नहीं था कि उनका उत्तर मेरा उत्तर होता, और चुनौती प्राप्त किया क्योंकि इसकी मुझे ज़रूरत थी l

यही बात पौलुस के मन में थी जब उसने “सब वस्तुओं की हानि [उठाकर], और उन्हें कूड़ा [समझकर] मसीह को प्राप्त” (फ़िलि. 3:8) करने को अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि समझा l विचार करें कि जीवन कितना समृद्ध होता यदि यीशु और उसके साथ हमारी संगति हमारी सबसे ऊँचा लक्ष्य होता l