दुनिया में दुख क्यों है इसपर लगभग प्रत्येक तर्क हमें अय्यूब की पुस्तक में मिल जाएगा, परन्तु तर्क करना अय्यूब की मदद नहीं करता। उसका संकट संदेह से बढ़कर है-संबंधों का।  क्या वह परमेश्वर पर भरोसा कर सकता है? सब से बढ़कर अय्यूब चाहता है: ऐसा कोई जो उसके दुर्भाग्य का कारण बता सके।  वह परमेश्वर से स्वयं मिलना चाहता है, आमने-सामने।

अंततः, परमेश्वर स्वयं अय्यूब  से मिलते हैं (अय्यूब 38:1)। जब एलीहू विस्तार से अय्यूब को समझा रहा था कि उसे परमेश्वर से मिलने की इच्छा करने का अधिकार क्यों नहीं है तभी  परमेश्वर आते हैं।

न तो अय्यूब-नाही उसका कोई मित्र- उसके लिए तैयार है जो परमेश्वर कहने जा रहे हैं। अय्यूब के प्रश्नों की सूची लंबी थी, परन्तु प्रश्न पूछने वाले परमेश्वर हैं, अय्यूब नहीं। आरंभ करते हुए वह कहते हैं “पुरुष की नाईं अपनी…(पद 3) “। दुख की समस्या पर पैंतीस अध्यायों तक चलने वाली बहस के उत्तर में, परमेश्वर प्राकृतिक संसार में बसे चमत्कारों पर एक भव्य कविता कहते हैं।

परमेश्वर का वचन सृष्टि के रचयिता और अय्यूब जैसे निर्बल व्यक्ति के बीच के विशाल अंतर को परिभाषित करता है। उनकी उपस्थिति अय्यूब के सबसे बड़े प्रश्न का उत्तर देती है: क्या कोई है? अब अय्यूब केवल यही कह सकता है, “परन्तु मैं ने तो…” (42:3) “।