एक लम्बे दिन के अंत में उसका ई-मेल मिला l सच में, मैंने उसे नहीं पढ़ा l मैं अतिरिक्त समय लेकर एक परिवार के सदस्य की गंभीर बिमारी में उसकी सहायता कर रही थी l इसलिए सामाजिक ध्यान भटकाव के लिए मेरे पास समय नहीं था l
अगली सुबह, हालाँकि, मैंने सहेली का ई-मेल पढ़ा : “क्या मैं किसी प्रकार तुम्हारी सहायता कर सकती हूँ?” शर्मिंदा होकर, मैं नहीं कहना चाही l उसके बाद एक सम्बी साँस लेकर ठहर गयी l मैंने ध्यान दिया कि उसका प्रश्न दिव्य भले ही न हो किन्तु परिचित था l
इसलिए कि यीशु ने पूछा था l यरीहो के मार्ग पर, पुकार रहे एक अंधे भिखारी की आवाज़ सुनकर, यीशु रूककर उस व्यक्ति, बर्तिमाई से उसी तरह का प्रश्न पूछा l क्या मैं तुम्हारी सहायता कर सकता हूँ? या जिस प्रकार यीशु ने कहा था, , “तू क्या चाहता है कि मैं तेरे लिए करूँ?” (मरकुस 10:51) l
यह प्रश्न चकित करनेवाला है l यह प्रगट करता है कि चंगाई देनेवाला, यीशु हमारी मदद करना चाहता है l किन्तु सर्वप्रथम, हमें अपनी ज़रूरत दर्शाना होगा अर्थात् दीन कदम उठाना होगा l वह “पेशेवर” भिखारी आवश्यक्तामंद था, वास्तव में गरीब, अकेला, और संभवतः भूखा और त्यागा हुआ l किन्तु नया जीवन पाने की इच्छा से, उसने सरलता से अपनी मूल ज़रूरत यीशु को बता दी l “रबी,” उसने कहा, “यह कि मैं देखने लगूं l”
एक अंधे के लिए यह एक ईमानदार निवेदन था l यीशु ने उसे तुरंत ठीक कर दिया l मेरी सहेली मुझसे ऐसी ही ईमानदारी चाहती थी l इसलिए मैंने उससे वादा किया कि मैं अपनी मूल ज़रूरत समझने के लिए प्रार्थना करुँगी, और इससे भी महत्वपूर्ण, कि मैं दीनता पूर्वक उसे बताऊंगी l क्या आप अपनी मूल आवश्यकता जानते हैं? जब आपका मित्र आपसे पूछे, तो उसे बता दीजिए l तब उसके बाद अपना निवेदन और भी ऊँचे पायदान पर ले जाइए l परमेश्वर को बता दीजिए l
परमेश्वर अभिमानियों का विरोध करता है, परन्तु दीनों पर अनुग्रह करता है l
1 पतरस 5:5