हाल ही की छुट्टियों में, हम दोनों पति-पत्नी एक प्रसिद्ध एथलेटिक काम्प्लेक्स घूमने गए l उसके फाटक पूरी रीति से खुले थे, और ऐसा अहसास हो रहा था मानों हमें उसे देखने के लिए बुलाया जा रहा है l हमने मैदान और सजे हुए स्पोर्ट्स फ़ील्ड्स को देखने का आनंद उठाया l लौटते समय किसी ने हमें रोक कर हमसे कठोरतापूर्वक कहा कि हमें वहां नहीं होना था l अचानक हमने याद किया कि हम बाहरी लोग थे और हम असहज हो गए l
उसी मौके पर हम एक चर्च देखने गए l पहले की तरह, दरवाजे खुले थे, इसलिए हम अन्दर गए l कितना अंतर था! कई लोगों ने गर्मजोशी से हमारा स्वागत किया और हमें अपने घर जैसा महसूस कराया l
दुःख की बात है, बाहरी लोगों के लिए चर्च में प्रवेश पर, “आप यहाँ नहीं आ सकते” जैसे अनकहे शब्दों से सामना असाधारण बात नहीं है l किन्तु वचन हमसे सबके प्रति पहुनाई दिखाने को कहता है l यीशु ने हमसे अपने पड़ोसियों को अपने समान प्रेम करने को कहा है, अर्थात् उन्हें अपने जीवनों में और हमारे कलीसियाओं में स्वीकार करना है (मत्ती 22:39) l इब्रानियों में, हमें “अतिथि सत्कार करना न भूलना” (13:2) याद दिलाया गया है l लूका और पौलुस दोनों ही हमें सामजिक और भौतिक आवश्यकताओं वाले लोगों से क्रियाशील प्रेम करने की शिक्षा देते हैं (लूका 14:1313-14; रोमियों 12:13) l और विश्वासियों के परिवार में, हमारे पास प्रेम प्रगट करने की विशेष जिम्मेदारी है (गलातियों 6:10) l
जब हम गर्मजोशी से और मसीह के प्रेम से सब लोगों का स्वागत करते हैं, हम उद्धारकर्ता का प्रेम और तरस प्रगट करते हैं l
जब हम आतिथ्य का अभ्यास करते हैं, हम परमेश्वर की भलाइयों को बांटते हैं l