भारत में बीसवीं सदी के अग्रणी चिकित्सा मिशनरी डॉ. पॉल ब्रैंड ने कुष्ठ रोग से जुड़े कलंक को देखा l एक मुलाकात के दौरान, उन्होंने मरीज को आश्वास्त करने के लिए छूआ कि इलाज संभव था l उस व्यक्ति के आँसू बहने लगे l एक परिचर ने यह कहते हुए डॉ. ब्रैंड को उस मरीज का आँसू समझाया, “आपने उसे छूआ और वर्षों से उसे किसी ने नहीं छूआ है l ये ख़ुशी के आँसू हैं l”
यीशु की आरंभिक सेवा में, एक कुष्ठ रोगी उसके पास आया l कुष्ठ सभी प्रकार के संक्रामक त्वचा रोगों के लिए प्राचीन सूचक था l पुराना नियम की व्यवस्था अनुसार इस व्यक्ति को अपने रोग के कारण अपने समाज से बाहर रहना अनिवार्य था l इत्तेफाक से रोगी का स्वस्थ्य व्यक्तियों के निकट संपर्क में आने पर उसे ऊँची आवाज़ में, “अशुद्ध! अशुद्ध!” पुकारना होता था जिससे लोग उससे दूर चले जाएँ (लैव्यव्यावस्था 13:45-46) l परिणामस्वरूप, उक्त व्यक्ति मानव संपर्क से महीनों या वर्षों तक दूर हो सकता था l
तरस से भरकर, यीशु ने हाथ बढ़ाकर उस व्यक्ति को छूआ l यीशु अपनी सामर्थ्य और अधिकार से मात्र एक शब्द बोलकर लोगों को चंगा कर सकता था (मरकुस 2:11-12) l लेकिन जब यीशु एक व्यक्ति से जो खुद को अपने शारीरिक बीमारी के कारण अकेला और तिरस्कृत महसूस करता था मुलाकात की, उसके स्पर्श ने उस व्यक्ति को निश्चित किया कि वह अकेला नहीं किन्तु स्वीकृत है l
जब परमेश्वर हमें अवसर देता है, हम सम्मान और महत्त्व के कोमल स्पर्श द्वारा करुणा और तरस दिखा सकते हैं l मानव स्पर्श की सरल, उपचार शक्ति, दुखित लोगों को हमारी देखभाल और चिंता लम्बे समय तक याद दिलाती है l