मुझे एक बुद्धिमत्ता पूर्ण परामर्श स्मरण आया, जो मुझे एक रेडियो प्रस्तुतकर्ता मित्र ने दिया था। अपने पेशे के आरम्भ में जब मेरे मित्र ने इस बात में संघर्ष किया कि आलोचना और प्रशंसा का सामना कैसे करना है, उसे महसूस हुआ कि परमेश्वर चाहता है कि वह उन दोनों को भूल जाए। जो बात उसने दिल में रख ली उसका सार यह है। आलोचना से जो कुछ भी मिले सीख लो और प्रशंसा को स्वीकार करो। उसके पश्चात दोनों को भूल जाओ और परमेश्वर के अनुग्रह और सामर्थ में आगे बढ़ जाओ। 

आलोचना और प्रशंसा हम में प्रबल भावनाएँ उत्पन्न करते हैं, यदि इन पर ध्यान न दिया जाए तो यह हमें स्वयं से घृणा या अत्यधिक घमण्ड की ओर ले जा सकते हैं। नीतिवचन में हम प्रोत्साहन और बुद्धिमत्तापूर्ण परामर्श के लाभ पढ़ते हैं: “अच्छे समाचार से हड्डियाँ पुष्‍ट होती हैं। जो जीवनदायी डाँट कान लगाकर सुनता है, वह बुद्धिमानों के संग ठिकाना पाता है। जो शिक्षा को अनसुनी करता, वह अपने प्राण को तुच्छ जानता है, परन्तु जो डाँट को सुनता (है), वह बुद्धि प्राप्‍त करता है” (15:30-32)l

यदि हमारी अत्यधिक आलोचना हो रही है तो प्रभु करे कि हम उसके द्वारा प्रखर होने को चुनें। नीतिवचन की पुस्तक बताती है : “जो जीवनदायी डाँट कान लगाकर सुनता है,

वह बुद्धिमानों के संग ठिकाना पाता है (पद 31)।

और यदि हमें प्रशंसा के शब्दों की आशीष प्राप्त होती है, तो प्रभु करे कि हम तरोताजा हो जाएँ और धन्यवाद से भर जाएँ। जब हम दीनता से परमेश्वर के साथ चलते हैं, तो वह हमें आलोचना और प्रशंसा, दोनों, से सीख लेने, उन्हें भूल जाने और फिर उसमें आगे बढ़ जाने में सहायता करता है (पद 33) ।