भूख की पीड़ा मेरे आत्मसंयम को विफल कर रही थी l मेरे सलाहकार ने उपवास को परमेश्वर पर केन्द्रित होने के लिए एक मार्ग के तौर पर अनुशंसित किया था l परन्तु जैसे-जैसे दिन बीतता गया, मैं विचार करने लगा : “यीशु ने यह चालीस दिनों तक कैसे किया? मैंने पवित्र आत्मा के ऊपर शांति, सामर्थ्य, और धीरज के लिए निर्भर रहने में संघर्ष की l विशेषकर धीरज l

यदि हम शारीरिक तौर पर सबल हैं, उपवास हमें हमारे आत्मिक भोजन का महत्त्व सिखा सकता है l जिस प्रकार यीशु ने कहा, “मनुष्य केवल रोटी ही से नहीं, परन्तु हर एक वचन से जो परमेश्वर के मुख से निकलता है, जीवित रहेगा” (मत्ती 4:4) l इसके बावजूद, जिस प्रकार मैंने पहले सीखा था, ज़रूरी नहीं कि उपवास अपने आप में हमें परमेश्वर के निकट ला दे!

वास्तव में, परमेश्वर ने एक बार नबी जकर्याह के द्वारा अपने लोगों से कहा कि उपवास करने की उनकी रीत व्यर्थ थी क्योंकि वह निर्धनों की सेवा का कारण नहीं बन रहा था l “क्या तुम सचमुच मेरे ही लिए उपवास करते थे?” परमेश्वर ने सारगर्भित रूप से पूछा (जकर्याह 7:5) l

परमेश्वर के प्रश्न ने यह प्रगट कर दिया कि उनकी प्रथम समस्या उनके पेट नहीं थे; वह उनके ठन्डे हृदय थे l वे निरंतर अपनी सेवा करने के कारण, परमेश्वर के हृदय के निकट आने में विफल थे l इसलिए उसने उनसे आग्रह किया, “खराई से न्याय चुकाना, और एक दूसरे के साथ कृपा और दया से काम करना, न तो विधवा पर अंधेर करना, न अनाथों पर, न परदेशी पर, और न दीन जन पर . . . हानि की कल्पना करना” (पद.9-10) l

किसी भी आत्मिक अनुशासन में हमारा लक्ष्य यीशु के निकट जाना है l जब हम उसकी समानता में उन्नति करते हैं, हम उनके लिए हृदय प्राप्त करेंगे जिनसे वह प्रेम करता है l