“वह मुझे ढूँढ लेगा,” मैंने सोचा l मेरा छोटा दिल और तेजी से धड़कने लगा जब मैंने अपने निकट अपने पांच वर्षीय चचेरे भाई के क़दमों की आवाज़ सुनी l वह निकट आ रहा था l केवल पांच कदम दूर l तीन l दो l “मैंने तुम्हें ढूढ़ लिया!”

लुका छुपी l हममें से बहुतों के पास बचपन के इस खेल की स्नेही यादें हैं l फिर भी जीवन में किसी समय ढूढ़ लिए जाने का भय खेल नहीं है परन्तु भाग जाने के गहरे सहजज्ञान में है l लोग जो देखेंगे उसे पसंद नहीं करेंगे l

पतित संसार के बच्चे होने के कारण, हम वह करने के लिए प्रवृत हैं जिसे मेरा मित्र इस तरह कहता है, परमेश्वर और हमारे बीच में “लुका छुपी का उलझा हुआ एक खेल l” यह बहुत हद तक छिपने का बहाना करने वाले खेल की तरह है – क्योंकि दोनों ओर से ही है l वह पूर्ण रूप से हमारे मैले विचार और गलत निर्णयों के आर पार देखता है l हम जानते हैं, यद्यपि हम बहाना बनाना चाहते हैं कि वह वास्तव में हमें नहीं देख सकता है l

फिर भी परमेश्वर निरंतर ढूढ़ता रहता है l वह हमें आवाज़ देता है, “बाहर आ जाओ l मैं तुम्हें देखना चाहता हूँ, तुम्हारे जीवन के सबसे लज्जाजनक हिस्से भी” – उसी आवाज़ की प्रतिध्वनि जिसने उस पहले मानव को पुकारा था जो भय के कारण छिप गया था : “तू कहाँ है?” (उत्पत्ति 3:9) l इस प्रकार का निमन्त्रण जो एक चुभनेवाले प्रश्न के रूप में बोला गया l मेरे बेटे/मेरी बेटी, “छुपे हुए स्थान से निकल आओ, और वापस मेरे साथ सम्बन्ध बना लो l”

यह बहुत हद तक जोखिम भरा हो सकता है, और बेतुका भी l परन्तु वहाँ पर, हमारे पिता की देखभाल के सुरक्षित स्थान में, हममें से कोई भी, चाहे हम जो भी किए हों या नहीं कर पाए हों, उसके द्वारा पूर्ण रूप से जाने जा सकते हैं और प्रेम किये जा सकते हैं l