विशेषकर जब हम जान जाते हैं कि परमेश्वर ने हमारे लिए दूसरों की सेवा करने का द्वार खोल दिया है और हमसे कहा जाता है “नहीं” या “अभी नहीं” तो यह स्थिति कठिन हो सकती है l मेरी आरंभिक सेवा में, दो सुअवसर मेरे सामना आए जहां मैंने सोचा कि मेरे वरदान और कौशल कलीसियाओं की आवश्यकताओं के अनुकूल थे, परन्तु दोनों ही दरवाजे आखिरकार बंद हो गए l इन दो निराशाओं के बाद, एक और स्थिति आई, और मेरा चुनाव हो गया l उस सेवा की बुलाहट के बाद मुझे तेरह वर्षों का जीवन-स्पर्श करनेवाला पास्तरीए मेहनत की सेवा मिली l

प्रेरितों 16 में दो बार परमेश्वर ने पौलुस और सहयोगियों को पुनः प्रेषित किया l पहली बार, “पवित्र आत्मा ने उन्हें एशिया में वचन सुनाने से मना किया” (पद.6) l उसके बाद, “उन्होंने मूसिया के निकट पहुँचकर, बितूनिया में जाना चाहा; परन्तु यीशु के आत्मा ने उन्हें जाने न दिया” (पद.7) l उनको मालुम न था, कि परमेश्वर के पास दूसरी योजनाएं थीं जो उसके कार्य और सेवकों के लिए सही थीं l पूर्व योजनाओं के लिए उसके इनकार ने उन्हें उसकी सुनने और भरोसेमंद तौर से उसकी अगुवाई में ले गया (पद.9-10) l

हममें से किसने अपने आरंभिक विचार के विषय दुःख नहीं मनाया है जो एक दर्दनाक हानि साबित हुयी? जब हमें कोई ख़ास नौकरी नहीं मिली हम घायल महसूस किये, जब एक सेवा का अवसर मूर्तरूप नहीं ले सका, जब नए स्थान पर बसना सफल नहीं हुआ l यद्यपि ऐसी बातें कुछ पलों के लिए चिंताजनक हो सकती हैं, समय अक्सर प्रगट कर देता है कि ऐसे चक्करदार मार्ग वास्तव में दिव्य पथांतर हैं जो प्रभु दयालुता से हमें अपने इच्छित स्थान पर ले जाने के लिए लाता है, और हम इसके लिए अहसानमंद है l