1722 में मोरावियन मसीहियों(Moravian Christians) का एक छोटा समूह, जो वहां निवास करते थे जो वर्तमान में चेक गणराज्य है, को एक उदार जर्मन शासक के रियासत में सताव से पनाह मिली l चार वर्षों के अन्दर, 300 से अधिक लोग वहां आ गए l परन्तु सताव सह रहे शरणार्थियों का एक आदर्श समुदाय बनने की बजाए, बंदोबस्त मतभेदों से भर गया l मसीहियत पर भिन्न दृष्टिकोण होने से विभाजन उत्पन्न हो गया l जो उन्होंने आगे किया एक छोटा विकल्प था, परन्तु उससे एक अविश्वसनीय जागृति आरम्भ हो गयी l उन्होंने उन बातों पर ध्यान देना आरम्भ किया जिनसे वे सहमत थे न कि असहमति की बातों पर l परिणाम एकता थी l

प्रेरित पौलुस ने प्रबलता से इफिसुस की कलीसिया के विश्वासियों को एकता में रहने के लिए उत्साहित किया l पाप हमेशा परेशानी, स्वार्थी इच्छाएँ, और संबंधों में विरोध उत्पन्न करेगा l परन्तु उनकी तरह जो “मसीह में जीवित किये गए थे” इफिसियों को अपनी नयी पहचान को व्यवहारिक तरीकों से जीने के लिए बुलाया गया था (इफिसियों 5:2) l प्राथमिक रूप से, उन्हें “मेल के बंधन में आत्मा की एकता रखने का यत्न [करना था]” (4:3) l

यह एकता मानवीय सामर्थ्य द्वारा प्राप्त केवल साधारण सोहार्द नहीं है l हमें “सारी दीनता और नम्रता सहित, और धीरज धरकर प्रेम से एक दूसरे की [सहना है]” (पद.2) l मानवीय दृष्टिकोण से, ऐसा करना असंभव है l हम अपने सामर्थ्य से एकता प्राप्त नहीं कर सकते हैं परन्तु परमेश्वर की सिद्ध सामर्थ्य से जो “हम में कार्य करता है” (3:20) l