1994 में दो महीने की अवधि के दौरान, हुतु जनजाति के सदस्यों द्वारा अपने साथी देशवासियों को मारने पर तुला रवांडा में दस लाख तुत्सी(नस्ली जाति) मारे गए थे l इस भयावह नरसंहार के मद्देनज़र, बिशप जेफ़री रुबुसिसी ने अपनी पत्नी से उन महिलाओं तक पहुँचने के बारे में संपर्क किया, जिनके प्रियजन मारे गए थे l मेरी का जवाब था, “मैं केवल रोना चाहती हूँ l” उसने भी अपने परिवार के सदस्यों को खोया था l बिशप की प्रतिक्रिया एक बुद्धिमान अगुआ और देखभाल करनेवाले पति की थी : “मेरी, महिलाओं को एक साथ इकठ्ठा करो और उनके साथ रोओ l” उन्हें पता था कि उनकी पत्नी के दर्द ने उन्हें दूसरों के दर्द में विशिष्ट रूप से भागीदारी करने के लिए तैयार किया था l 

कलीसिया, परमेश्वर का परिवार है, जहाँ जीवन की सभी बातें साझा की जा सकती हैं – अच्छी और जो बहुत अच्छी नहीं हैं l नए नियम का शब्द “परस्पर” का उपयोग एक दूसरे पर हमारी निर्भरता को हथियाने के लिए किया गया है l “भाईचारे के प्रेम से एक दूसरे से स्नेह रखो; परस्पर आदर करने में एक दूसरे से बढ़ चलो . . . आपस में एक सा मन रखो” (रोमियों 12:10, 16) l हमारी संयुक्तता की सीमा पद 15 में व्यक्त की गयी है : “आनंद करनेवालों के साथ आनंद करो, और रोनेवालों के साथ रोओ l”

जबकि नरसंहार से प्रभावित लोगों की तुलना में हमारे दर्द की गहराई और गुंजाइश कम हो सकती है, फिर भी यह व्यक्तिगत और वास्तविक है l और, जैसा कि मेरी के दर्द के साथ था, इसलिए कि परमेश्वर ने हमारे लिए जो किया है उसे गले लगाया जा सकता है और दूसरों के दिलासा और भलाई के लिए साझा किया जा सकता है l