मेरा सबसे अपमानजनक अनुभव वह दिन था जब मैंने अपनी पचासवीं वर्षगाँठ पर एक सेमिनरी के संकाय, छात्रों और दोस्तों को संबोधित किया था l मैं व्याख्यान के लिए भाषण-मंच पर अपने हाथ से लिखित नोट्स के साथ पहुंचा और एक विशाल भीड़ को देखा, लेकिन मेरी नज़र सामने की पंक्ति में बैठे प्रतिष्ठित प्रोफेसरों पर पड़ी, जो अकादमिक गाउन पहने हुए थे और बहुत गंभीर दिख रहे थे l मेरा होश उड़ गया l मेरा मुँह सूख गया और मेरे मस्तिष्क से उसका सम्बन्ध टूट गया l मैंने पहले कुछ वाक्य पढ़े और फिर मैं उसे तत्काल सुधारना शुरू किया l चूँकि मुझे पता नहीं था कि मैं अपने व्याख्यान में कहाँ पर था, मैंने निरर्थक रूप से पृष्ठों को पलटना शुरू कर दिया, और साथ में बकवास करने लगा जिससे सभी चकित हो गए l किसी तरह मैंने इसे पूरा किया, अपनी कुर्सी पर लौट आया, और फर्श पर एक टक देखने लगा l मैं मरना चाहता था l

हालाँकि, मैंने यह सीखा कि अपमान एक अच्छी बात हो सकती है अगर यह विनम्रता की ओर ले जाए, क्योंकि वह परमेश्वर का दिल खोलनेवाली कुंजी है l शास्त्र कहता है “परमेश्वर अभिमानियों का विरोध करता है, पर दीनों पर अनुग्रह करता है” (याकूब 4:6) l वह अनुग्रह के साथ विनम्रता दिखाता है l स्वयं परमेश्वर ने कहा, “मैं उसी की ओर दृष्टि करूँगा जो दीन और खेदित मन का हो, और मेरा वचन सुनकर थरथराता हो” (यशायाह 66:2) l जब हम सब खुद को परमेश्वर के सामने नम्र दीन करते हैं, वह हमें शिरोमणि करता है (याकूब 4:10) l

अपमान और शर्म हमें परमेश्वर के पास ला सकता है कि वह हमें आकार दे सके l जब हम दीन होते हैं, हम परमेश्वर के हाथों में गिरते हैं l