कॉलेज के दौरान, मैंने वेनेजुएला में गर्मियों का एक बड़ा हिस्सा बिताया l भोजन अद्भुत था, लोग दिलचस्प थे, मौसम और आतिथ्य मनोहर था l पहले या दो दिनों के भीतर, हालांकि, मैंने माना कि समय प्रबंधन पर मेरे विचार मेरे नए दोस्तों द्वारा साझा नहीं किए गए थे l अगर हम दोपहर को भोजन करने की योजना बनाते थे, तो इसका मतलब था 12:00 से 1:00 बजे के बीच कहीं भी l सभाओं या यात्रा के लिए भी उसी तरह : समय सीमा कठोर समय-पालन के बिना सन्निकटन(approximation) थे l मैंने महसूस किया कि “समय पर होने” का मेरा विचार मेरी समझ से कहीं अधिक सांस्कृतिक रूप से बना था l
आमतौर पर हमारे कभी ध्यान दिए बिना, हम सभी अपने चारों-ओर की सांस्कृतिक मूल्यों द्वारा आकार पाते हैं l पौलुस इस सांस्कृतिक बल को “संसार” कहता है (रोमियों 12:2) l यहाँ, “संसार” का अर्थ भौतिक संसार नहीं है, बल्कि यह सोचने के तरीके को संदर्भित करता है जो हमारे अस्तित्व में व्याप्त है l यह निर्विवाद मान्यताओं और मार्गदर्शक आदर्शों को संदर्भित करता है जो हमें केवल इसलिए सुपुर्द किया गया है क्योंकि हम एक विशेष स्थान और समय में रहते हैं l
पौलुस सचेत करता है कि हमें “इस संसार के सदृश” नहीं बनना है l इसके बजाय, “[हमारे] मन के नए हो जाने से [हमारा] चाल-चलन भी बदलता जाए” (पद.2) l निष्क्रिय रूप से सोचने के तरीकों को ग्रहण करना और विश्वास करना जो हमें लपेट लेती है, हमें परमेश्वर के सोचने के तरीके को सक्रिय रूप से आगे बढ़ाने के लिए बुलाया गया है और सीखने के लिए कि कैसे उसकी “भली, और भावती, और सिद्ध इच्छा” समझें (पद.2) l काश हम हर एक दूसरी आवाज़ की जगह परमेश्वर का अनुसरण करना सीखें l