हाल ही में मैंने एक टीवी विज्ञापन में देखा, एक महिला यूँ ही टीवी देखने वाले समूह में किसी से पूछती है, “मार्क, आप क्या खोज रहे हैं?” “खुद का एक संस्करण जो भय के आधार पर निर्णय नहीं लेता है,” वह सादगी से उत्तर देता है – यह एहसास नहीं करते हुए कि वह सिर्फ यह पूछ रही थी कि उसे टीवी पर क्या देखना पसंद है!
ठहरो, मैंने सोचा l मैं यह आशा नहीं कर रहा था कि एक टीवी विज्ञापन मुझपर इतनी गहराई से प्रहार करेगा! लेकिन मैं बेचारे मार्क से संबंधित था : कभी-कभी मैं भी उस तरह से शर्मिंदा महसूस करता हूँ जिस तरह कभी-कभी प्रतीत होता है कि डर मेरे जीवन को चला रहा है l
यीशु के शिष्यों ने भी डर की अथाह शक्ति का अनुभव किया l एक बार, जब वे गलील की झील के पार जा रहे थे (मरकुस 4:35), “तब बड़ी आँधी” आयी (पद.37) l डर ने उन्हें जकड़ लिया, और उन्होंने सुझाव दिया कि यीशु (जो सो रहा था!) शायद उनकी परवाह नहीं करेगा : “हे गुरु, क्या तुझे चिंता नहीं कि हम नष्ट हुए जाते हैं?” (पद.38) l
डर ने शिष्यों की दृष्टि को विकृत कर दिया, जिसके कारण वे उनके लिए यीशु के अच्छे इरादों को देखने में असमर्थ हो गए l आंधी और लहरों को डांटने के बाद (पद.39), मसीह ने दो तीखे प्रश्नों के साथ चेलों का सामना किया : “तुम क्यों डरते हो? क्या तुम्हें अब तक विश्वास नहीं?” (पद.40) l
तूफान हमारे जीवनों में भी उठते हैं, क्या ऐसा नहीं है? लेकिन यीशु के सवाल हमें अपने डर को परिप्रेक्ष्य में रखने में मदद कर सकते हैं l उनका पहला सवाल हमें अपने डर को नाम देने के लिए आमंत्रित करता है l दूसरा हमें उन विकृत भावनाओं को उसे सौंपने के लिए आमंत्रित करता है – उससे देखने वाली आँखें मांगता है कि वह जीवन के सबसे उग्र तूफानों में भी हमारा मार्गदर्शन कैसे करता है l