जब प्रसिद्ध ब्रिटिश लेखक सी.एस. लुईस  ने पहली बार यीशु को अपना जीवन दिया, तो उन्होंने शुरू में परमेश्वर की प्रशंसा करने का विरोध किया l वास्तव में,  उन्होंने इसे “एक बाधा” कहा l उनका संघर्ष “उस सुझाव में था कि यह स्वयं परमेश्वर की मांग थी l” लुईस ने आखिर में महसूस किया कि “यह आराधना की जाने की प्रक्रिया में है कि परमेश्वर” अपने लोगों तक “अपनी उपस्थिति का संचार करता है l” उसके बाद हम, “परमेश्वर के साथ पूर्ण प्रेम में, वह चमक जो आइना बिखेरता है” से  “जो आइना प्राप्त करता है उस चमक से अधिक” उसमें वह आनंद पाते हैं जो अलग नहीं किया जा सकता है l

नबी हबक्कूक सदियों पहले इस निष्कर्ष पर पहुंचा था l बुराई के विषय जो यहूदा के लोगों पर लक्षित थे परमेश्वर से शिकायत करने के बाद,  हबक्कूक ने देखा कि उसकी प्रशंसा करने से आनंद मिलता है─परमेश्वर जो करता है उसमें नहीं, लेकिन इसमें कि वह कौन है l इस प्रकार,  एक राष्ट्रीय या विश्व संकट में भी, परमेश्वर फिर भी महान है l जैसा कि नबी ने घोषणा की :

“क्योंकि चाहे अंजीर के वृक्षों में फूल न लगें, और न दाखलताओं में फल लगें, जलपाई के वृक्ष से केवल धोखा पाया जाए और खेतों में अन्न न उपजे, भेड़शालाओं में भेड़-बकरियाँ न रहें, और न थानों में गाय बैल हों, तौभी मैं यहोवा के कारण आनंदित और मगन रहूँगा” (हबक्कूक 3:17-18) l उसने आगे कहा, “और अपने उद्धारकर्ता परमेश्वर के द्वारा अति प्रसन्न रहूँगा l”

जैसा कि सी.एस. लुईस ने महसूस किया,  “पूरी दुनियाँ प्रशंसा से गूंजती है l” इसी तरह हबक्कूक ने हमेशा परमेश्वर की स्तुति करने हेतु आत्मसमर्पण कर दिया, उसमें भरपूर आनंद प्राप्त किया जिसकी “गति अनंत काल से एक सी है l”