उनके आखरी वर्षों में, श्रीमती गुडरिच की चुनौती पूर्ण और अनुग्रह भरे जीवन की यादों के साथ उनके विचार ध्यान में आए और गये । एक खिड़की के पास बैठी खाड़ी के जल के ऊपर से देखती हुयी, उन्होंने अपना नोटपैड उठाया l उन शब्दों में जिन्हें शीघ्र वह खुद ही  पहचान नहीं पाती उन्होंने लिखा : “यहाँ मैं अपने पसंदीदा कुर्सी पर बैठी हूँ, मेरे पैर देहलीज पर, और मेरा हृदय हवा में । सूर्य से प्रभावित लहरें नीचे जल पर, निरंतर गतिशील──कहाँ जाती हुयी मुझे ज्ञात नहीं l लेकिन आपको धन्यवाद──प्रिय स्वर्गिक पिता──आपके अनगिनत उपहार के लिए और आपके अमर प्रेम के लिए! यह मुझे हमेशा अचंभे में डालता है──यह कैसे हो सकता है? कि मैं उसके साथ प्यार में हूँ जिसे मैं देख नहीं सकती l”

प्रेरित पतरस ने इस तरह का आश्चर्य स्वीकार किया । उसने यीशु को अपनी आँखों से देखा था, लेकिन जो इस पत्री को पढ़नेवाले थे उन्होंने नहीं देखा था l “उस पर [तुम] बिन देखे . . . विश्वास करके ऐसे आनंदित और मगन होते हो जो वर्णन से बाहर और महिमा से भरा हुआ है” (1 पतरस 1:8) । हम यीशु से इसलिए नहीं प्रेम करते है कि हमें आज्ञा मिली है,  परन्तु आत्मा की मदद से (पद.11) हम देखना शुरू कर दते हैं कि वह हमसे कितना प्रेम करता है ।

यह सुनने से ज्यादा है कि वह हम जैसे लोगों की देखभाल करता है । जीवन की हर अवस्था में उसकी अनदेखी उपस्थिति और आत्मा के आश्चर्य को हमारे लिए वास्तविक बनाने के लिए मसीह के वादे को अपने लिए अनुभव करना है l