“मैं किसी भी प्रकार से नहीं चाहता था कि ऐसा हो,” एक व्यक्ति ने, अपने मित्र की सराहना करते हुए कहा जिसकी मृत्यु युवावस्था में हो गयी थी l उसके शब्दों ने मानवता के हृदय की स्थायी पुकार को मार्मिकता दी l मृत्यु हममें से हर एक को चौंकती है और आघात पहुंचती है l जो हो नहीं सकता हम उसे ज्यों का त्यों करने को तरसते हैं l 

यीशु की मृत्यु के बाद “ऐसा न हो” की चाहत उसके अनुयायियों की भावनाओं को अच्छी तरह दर्शाती है l सुसमाचार उन डरावने घंटों के विषय बहुत कम बताते हैं, लेकिन वे कुछ विश्वासयोग्य मित्रों की क्रियाओं का वर्णन ज़रूर करते हैं l 

एक धार्मिक अगुवा, युसूफ ने, जो गुप्त विश्वासी था (यूहन्ना19:38 को देखें), अचानक से हिम्मत जुटाकर पिलातूस से यीशु की देह मांग लिया(लूका 23:52)। क्षण भर के लिए सोच कर देखिए कि भयानक क्रुसीकरण से किसी मृत व्यक्ति को उतारकर दफ़नाने के लिए तैयार करना कितना कठिन रहा होगा (पद.53) l उन महिलाओं की भक्ति और दिलेरी देखिए जो यीशु मसीह के साथ उसके हर कदम पर यहां तक कि कब्र तक उसके साथ रहीं ( पद 55)। मृत्यु के सामने, कभी न मरनेवाला प्रेम!

ये अनुयायी पुनरुत्थान की अपेक्षा नहीं कर रहे थे; वे तो बहुत उदास थे। इस अध्याय का अंत बिना किसी आशा के साथ होता है, मात्र एक निराशा, “तब उन्होंने लौटकर [यीशु की देह पर लेप लगाने के लिए] सुगन्धित वस्तुएं और इत्र तैयार किया; और सब्त के दिन उन्होंने आज्ञा के अनुसार विश्राम किया” (पद.56) l 

वे कम ही जानते थे कि सब्त के बाद का विराम इतिहास के सबसे नाटकीय दृश्य का मंच तैयार कर रहा था l यीशु कल्पना से परे करने जा रहे थे l वह मृत्यु को ही “ऐसा नहीं है” करने जा रहे थे।