चंगाई की वर्षा
तूफान मुझे हमेशा से पसंद रहा है। बचपन में तेज़ बारिश में अपने भाई-बहनों समेत घर के बाहर जमा पानी में छलांग लगाना, फिसलना, और पूरी तरह से भीगना रोमांचकारी होता था। उस समय यह कहना कठिन था कि हमें मज़ा आ रहा है या डर लग रहा है।
वचन परमेश्वर के पुनरुद्धार की तुलना उस निर्जल देश से करता है जिसमें जल के ताल भर जाएँ, उदाहरण के लिए भजन संहिता 107 को लें। जो रेगिस्तान को जल के ताल में बदल दे वह एक मंद वर्षा नहीं वरन घनघोर बारिश होगी जिससे बंजर भूमि की दरारों में नया जीवन भर जाएगा।
क्या हम ऐसे ही पुनरुद्धार की प्रतीक्षा नहीं कर रहे हैं? जब चंगे होने के भूखे-प्यासे हम लक्ष्यहीन भटकने लगते हैं (पद 4-5), तब हमें एक ज़रा सी तस्सली भर से बढ़कर कुछ और पाने की लालसा होती है। जब पाप की जड़ें हमें घोर अंधकार के बन्धनों में जकड़ती हैं (पद 10-11 ) तब हमें मात्र अपनी दशा में परिवर्तन से बढ़कर कुछ और पाने की लालसा होती है।
ऐसा परिवर्तन परमेश्वर ला सकते हैं (पद 20)। अपने डर और शर्म को परमेश्वर के पास लाने में देर नहीं हुई है, जो हमें पाप के अंधकार से निकालकर अपने प्रकाश में लाने से बढ़कर करने में सक्षम हैं।
सिद्ध अपूर्णता
मेरे कॉलेज के एक प्रोफेसर ने मुझमें आदर्शवाद-प्रेरित विलम्ब(टालमटोल) को देखते हुए मुझे कुछ बुद्धिमान सलाह दी l “सिद्धता को अच्छे का शत्रु मत बनाओ,” उसने कहा, सिद्ध प्रदर्शन का प्रयास उन्नत्ति के लिए आवश्यक जोखिम उठाने से रोकता है l स्वीकार करते हुए कि मेरे काम हमेशा अपूर्ण रहेंगे मुझे उन्नत्ति करने की स्वतंत्रता मिलेंगी l
प्रेरित पौलुस ने खुद को सिद्ध बनाने में अपने प्रयास को त्यागने का एक और ख़ास कारण समझाया : मसीह हमारी ज़रूरत है, यह हमें इसके प्रति अँधा कर सकता है l
पौलुस ने इस सच को कठिन तरीके से सीखा था l कई वर्षों तक परमेश्वर की व्यवस्था को सिद्धता से पालन करने के प्रयास में, जब यीशु से मुलाकात हुई सब कुछ बदल गया (गलातियों 1:11-16) l पौलुस ने समझ लिया कि यदि परमेश्वर के साथ पूर्ण और सही होने के लिए उसके प्रयास काफी हैं, “तो मसीह का मरना व्यर्थ होता” (2:21) l केवल खुद का इनकार ही, खुद पर भरोसा करना त्यागकर ही, वह यीशु को अपने जीवन में जीवित महसूस कर सकता था (पद.20) l अपनी अपूर्णता में वह परमेश्वर की पूर्ण सामर्थ्य अनुभव कर सकता था l
इसका अर्थ यह नहीं है कि हम पाप का सामना न करें (पद.17); किन्तु इसका अर्थ यह ज़रूर है कि हम आत्मिक उन्नत्ति के लिए अपनी सामर्थ्य पर भरोसा करना छोड़ दें (पद.20) l
इस जीवन में, हम प्रगति करने वाले बने रहेंगे l किन्तु जब हमारे हृदय सिद्ध परमेश्वर की ज़रूरत के लिए नम्र बने रहेंगे, यीशु वहां निवास करेगा (इफिसियों 3:17) l हम उसमें जड़वत रहकर, उस ज्ञान से परे प्रेम में और गहराई से बढ़ते जाएंगे (पद.19) l
परेशानी के मध्य आशीष
मैं इस समस्या में फँस गयी हूँ, इसलिए मुझे इसमें से निकलना ही होगा, कभी-कभी मैं ऐसे सोचती हूँ l यद्यपि मैं परमेश्वर के अनुग्रह में विश्वास करती हूँ, फिर भी मैं ऐसा करने की ओर झुकती हूँ मानो उसकी सहायता केवल उसी समय उपलब्ध है जब मैं उसके योग्य होती हूँ l
परमेश्वर का याकूब के साथ पहली बार आमना-सामना एक खुबसूरत उदहारण है कि उपरोक्त बात कितनी गलत है l
इस प्रकार याकूब ने पिता की आशीष पाने के लिए वह सब कुछ किया जो वह कर सकता था l आख़िरकार, वह धोखा देकर सफल हो गया और अपने भाई की आशीष प्राप्त कर लिया (उत्पत्ति 27:19-29) l
उपरोक्त घटना का परिणाम एक विभाजित परिवार था, जब याकूब अपने क्रोधित भाई से भागा (पद. 41-43) l जब रात हुयी (पद.28:11), याकूब सदैव के लिए जीवन की एक आशीष से वंचित हो गया होता l
किन्तु आशीष एक निशानी छोड़ते हुए वहां पर थी, कि याकूब ने परमेश्वर से मुलाकात की थी l परमेश्वर ने उसे दिखा दिया था कि उसकी ज़रूरत जोखिम उठाकर आशीष पाना नहीं था; वह खुद ही आशीष था l उसकी नियति का उद्देश्य भौतिक समृद्धि से कहीं महान था (पद.14) और परमेश्वर द्वारा सुरक्षित था जो उसे कभी नहीं छोड़ने वाला था (पद.15) l
यह एक ऐसा पाठ था जो याकूब अपनी पूरी ज़िन्दगी सीखने वाला था l
और हम भी सीखेंगे l चाहे हम जितनी बार खेद प्रगट करें या परमेश्वर हमसे दूर नज़र आए, वह उपस्थित है और हमें परेशानियों में से निकालकर अपनी आशीष देना चाहता है l
अनुसरण करने की स्वतंत्रता
एक बार मेरे स्कूल के कोच ने मुझे एक दौड़ के पहले कहा, “आगे-आगे मत दौड़ना l आगे दौड़ने वाले जल्द ही थक जाते हैं l” इसके बदले उनकी सलाह थी कि मैं सबसे तेज दौड़ने वाले के निकट रहूँ l तेज दौड़ने वालों द्वारा गति बनाए रखने के कारण मैं अपने मानसिक और शारीरिक ताकत को बनाए रख सकूँगा और दौड़ भी अच्छी तरह पूरी कर लूँगा l
नेतृत्व थका सकता है; अनुसरण स्वतंत्र रखता है l इसको जानकार मेरा दौड़ना और बेहतर हो गया, किन्तु मसीही शिष्यता में यह लागू कैसे होता है, जानने में समय लगा l मेरे खुद के जीवन में, मेरी सोच थी कि यीशु का विश्वासी होने का अर्थ है सश्रम कोशिश करना l एक मसीही को कैसा होना चाहिए के विषय अपनी थकाऊ इच्छा का पीछा करने के द्वारा, मैं सरलता से उसका अनुसरण करने की जगह गलती से आनंद और स्वतंत्रता को खो रहा था (यूहन्ना 8:32,36) l
किन्तु हमें अपने जीवनों को चलाने कि ज़रूरत नहीं है, और यीशु ने आत्म-सुधार कार्यक्रम आरंभ नहीं किया था l इसके बदले, उसकी प्रतिज्ञा थी कि उसका अनुसरण करके हम उस शांति को प्राप्त करेंगे जिसकी हम इच्छा करते हैं (मत्ती 11:25-28) l अन्य धार्मिक शिक्षकों के विपरीत जो वचन के कठोर अध्ययन अथवा नियम पालन पर बल देते हैं, यीशु की शिक्षा थी कि उसको जानने के द्वारा हम परमेश्वर को जान सकते हैं (पद.27) l उसको खोजने से, हमारे भारी बोझ उतर जाएंगे (पद.28-30) और हमारे जीवन बदल जाएंगे l
क्योंकि नम्र और दीन अगुए के पीछे चलना सरल है (पद.29) – यह आशा और चंगाई का मार्ग है l उसके प्रेम में विश्राम करने से हम स्वतंत्र रहते हैं l
अनाम दया
ग्रेजुएशन के बाद मुझे एक कड़ा बजट बनाना पड़ा- सप्ताह में पच्चीस डॉलर। एक दिन, बिलिंग लाइन में मुझे लगा कि मेरा सामान मेरे बजट से अधिक लागत का है। "बीस डॉलर तक पहुंचकर बिलिंग रोक देना" मैंने केशियर से कहा। मिर्च छोड़कर बाकि सभी चीजें बिल हो गईं।
मैं निकल ही रही थी कि एक व्यक्ति मेरी कार के पास आया। मुझे एक पैकेट पकड़ा कर उसने कहा “आपकी मिर्ची यह रही”। इससे पहले मैं उसे धन्यवाद देती, वह जा चुका था।
दया के कार्य की इस भलाई की याद, मेरे दिल को आज भी छू जाती है और मत्ती 6 में यीशु के शब्दों का स्मरण दिलाती है। यीशु ने उन कपटियों की आलोचना करते हुए जो दिखावे के लिए दान देते थे, (पद 2) अपने चेलों को अलग रास्ता सिखाया। उन्होंने दान को ऐसे गुप्त रखने की प्रेरणा दी कि “जो तेरा दाहिना हाथ...(पद 3)!
एक अंजान व्यक्ति की दया ने मुझे याद दिलाया, देना कभी हमारे बारे में कभी न हो। हम देते हैं क्योंकि हमारे उदार परमेश्वर ने हमें बहुतायत से दिया है (2 कुरिन्थियों 9:6-11) गुप्त और उदार रूप से दान देकर हम यह दर्शाते हैं कि वह कौन हैं-और परमेश्वर को धन्यवाद की भेंट मिलती हैं जिसके केवल वो ही योग्य हैं (पद 11)।
जीवित रहने का मुद्दा
वित्तीय सलाह पर अधिकांश पुस्तकों में मैंने एक रोचक विचारधारा देखी है, कि आज खर्चे कम करो कल करोड़पति बनो। एक पुस्तक का भिन्न दृष्टिकोण था, समृद्ध जीवन जीना हो तो सादगी से जिओ। यदि आनन्द अनुभव करने के लिए आपको अधिक फैंसी सामान चाहिए, तो “आप जीने के मुख्य मुद्दे से चूक गए हैं”।
इस व्यावहारिक ज्ञान से यीशु की प्रतिक्रिया याद आती है जब किसी ने उनसे उसके भाई से सम्पति बाँटने को कहा। “जीवन सम्पति की बहुतायत से नहीं होता” कहते हुए यीशु ने “हर प्रकार के लोभ” से बचने की चेतावनी दी (लूका 12:14-15)। उन्होंने बताया कि सुखी जीवन के लालच में एक धनवान ने फ़सल भंडार में रखने की योजना बनाई-पहली सदी की रिटायरमेंट प्लानिंग-जिसका कटु परिणाम हुआ। सम्पति ने उसे सुख न दिया क्योंकि उसी रात उसकी मृत्यु हो गई (पद 16-20 )।
यीशु के शब्द हमें अपनी मंशा जाँचने की प्रेरणा देते है। हमारा हृदय परमेश्वर के राज्य की खोज में-उन्हें जानने में और दूसरों की सेवा करने में लगना चाहिए न कि भविष्य सुरक्षित करने में (पद 29-31)। जब हम यीशु के लिए जिएँ और उनका सन्देश निसंकोच दूसरों से बांटें, तो हम उनके साथ सुखी जीवन जी सकते हैं अभी -ऐसे राज्य में जो हमारे जीवन को अर्थ देता है (पद 32-36)।
जीवन कैसे परिवर्तित करें
रॉक एंड रोल के सुप्रसिद्ध कलाकार ब्रूस स्प्रिंगस्टीन के कठिन बचपन में और डिप्रेशन से लगतार संघर्ष करने में सगींत कलाकारों के काम ने ही मदद की थी। अपने कार्य का अभिप्राय उन्हें उसी सत्य से मिला, जिसका अनुभव उन्होंने स्वयं किया था, “एक उचित गीत से आप किसी के जीवन को तीन मिनट में परिवर्तित कर सकते हैं”।
ध्यान से चुने हुए शब्द हमें आशा देते हैं, यहां तक कि जीवन बदल सकते हैं। जैसे किसी शिक्षक के शब्द जो संसार को देखने का हमारा नजरिया बदलते हैं, आत्मविश्वास बढ़ाने वाले उत्साह वर्धक शब्द, कठिन समय में मित्र के नम्र शब्द जो हमें सम्भालते हैं।
वचन की पुस्तक शब्दों को खज़ाना समझने और बुद्धिमानी से उनका उपयोग करने के हमारे उत्तरदायित्व पर बल देती है। हमारे शब्दों में मृत्यु और जीवन के परिणाम हो सकते हैं, (18:21 नीति)। शब्दों से हम किसी की आत्मा को दु:खित कर सकते हैं, या दूसरों के मनोबल को बढ़ा कर उन्हें मजबूत कर सकते हैं (15:4)।
प्रभावशाली संगीत बनाने की क्षमता हम सब में नहीं है। परन्तु अपनी बातों के माध्यम से दूसरों की सेवा करने के लिए हम परमेश्वर की बुद्धि मांग सकते हैं (भजन 141:3)। किसी के जीवन को कुछ शब्दों से बदलने के लिए परमेश्वर हमारा उपयोग कर सकते हैं।
बाहर का भाग अन्दर?
“परिवर्तन : अन्दर का भाग बाहर अथवा बाहर का भाग अन्दर?” मुख्य समाचार में यही लिखा था और वर्तमान का प्रचलित चलन दर्शा रहा था कि बाहरी बदलाव जैसे सौन्दर्य प्रसाधन द्वारा बदलाव अथवा बेहतर ढंग अन्दर की भावनाओं को जानने का और जीवन बदलने का भी एक सरल तरीका हो सकता है l
एक आकर्षक विचार कहता है कि कौन नहीं चाहता कि हमारे जीवन नए रूप की तरह अत्यंत सरल हो जाएँ? हममें से अनेक लोगों ने कठिन तरीके से सीखा है कि पुरानी आदतों को छोड़ना लगभग असम्भव होता है l सरल बाहरी बदलाव पर ध्यान लगाने से आशा दिखाई देती है कि हमारे जीवनों में सुधार लाने का एक तेज़ तरीका है l
किन्तु यद्यपि ये बदलाव हमारे जीवनों में सुधार ला सकते हैं, बाइबिल चाहती है कि हम एक गंभीर बदलाव का प्रयास करें जो खुद पर भरोसा करने से संभव नहीं है l वास्तव में, गलातियों 3 में भी पौलुस का तर्क है कि परमेश्वर की व्यवस्था अर्थात् अनमोल उपहार जिसके द्वारा उसकी इच्छा प्रगट हुई, भी परमेश्वर के लोगों के टूटेपन को चंगा नहीं कर सका (पद.19-22) l वास्तविक चंगाई और छुटकारे के लिए ज़रूरी था कि वे विश्वास और पवित्र आत्मा के द्वारा ((5:5) मसीह को “पहिन” लें (पद.27) l उसके द्वारा चुने जाकर और रूप पाकर, उनकी पहचान मूल्यवान हो जाएगी अर्थात् हर एक विश्वासी परमेश्वर की प्रतिज्ञाओं का बराबर से हक़दार होगा (3:28-29) l
हम आसानी से आत्म-सुधार तकनीक में अत्यधिक ऊर्जा खर्च कर सकते हैं l किन्तु उस प्रेम को जो ज्ञान से परे है और जो सब कुछ बदल सकता है, को जानने से ही हम अपने हृदयों में गहरा और अत्यधिक संतोषजनक बदलाव अनुभव कर सकते हैं (इफि. 3:17-19) l
परमेश्वर द्वरा थामा गया
एक दोपहर अपनी बहन और उसके बच्चों के संग भोजन समाप्त करते समय, मेरी बहन ने मेरी तीन वर्षीय भांजी, अनिका से कहा कि दोपहर में उसके सोने का समय हो गया है l वह चौंक गयी l “किन्तु मोनिका आंटी ने आज मुझे गोद में नहीं लिया!” वह आँसुओं से बोली l मेरी बहन मुस्कराकर बोली l “ठीक है, तुम कितनी देर तक चाहती हो कि वह तुम्हें गोद में उठाए?” उसका उत्तर था, “पाँच मिनट l”
अपनी भांजी को गोद में लेकर, मैं कृतज्ञ हूँ कि प्रयास के अभाव में भी, वह मुझे याद दिलाती है प्रेम करना और प्रेम पाने का अनुभव क्या होता है l मेरी सोच में हमारी विश्वास यात्रा कल्पना से परे परमेश्वर का प्रेम अनुभव करने का है (इफि.3:18) l अपना ध्यान खोने पर हम यीशु के उड़ाऊ पुत्र के दृष्टान्त में जेठा पुत्र स्वरुप होते हैं, और भूलकर कि हमारे पास सब कुछ है, परमेश्वर का समर्थन पाने की कोशिश करते हैं (लूका 15:25-32) l
भजन 131 वचन में एक प्रार्थना है जो हमें “बालकों के समान”(मत्ती. 18:3) बनने में मदद करता है और हमें हमारे मस्तिष्क के नहीं समझने वाले द्वन्द से दूर करता है (भजन 131:1) l इसके बदले, हम समय के साथ उसमें शांति स्थान में लौट सकते हैं (पद.2),उसके प्रेम में आवश्यक आशा प्राप्त कर सकते हैं (पद.3)-जैसे हम शांति और चैन से अपनी माता के बाहों में हों (पद.2) l