मेरी सहेली अपने परिवार और मित्रों को अपने घर पर एक उत्सव अवकाश समारोह के लिए इकठ्ठा करने हेतु उत्सुक थी l संगति में प्रत्येक अतिथि इकठ्ठा होने को तैयार था और भोजन खर्च में योगदान करके खर्च कम करना चाहता था l कुछ लोग रोटी, दूसरे लोग सलाद या कोई और प्रकार का भोजन लाने वाले थे l हालाँकि, एक अतिथि आर्थिक रूप से अत्यधिक तंग थी l वह शाम को प्रिय लोगों की संगति में शामिल होने की इच्छा रखते हुए भी, कोई भी भोजन लाने में असमर्थ थी l इसलिए, इसके बदले, उसने अपने मेजबान के घर को साफ़ करने का प्रस्ताव रखकर अपना योगदान दिया l
उसका स्वागत खाली हाथ आने पर भी हुआ होता l फिर उसने जो उससे हो सकता था देने की इच्छा प्रगट की – उसका समय और कौशल – और पूरे मन से उस संगति में आयी l मेरे विचार से 2 कुरिन्थियों 8 में पौलुस के शब्दों के भाव यही थे l विश्वासी कुछ साथी मसीहियों की सहायता करने के लिए उत्सुक थे, और पौलुस ने उन प्रयासों का पालन करने का आग्रह किया l उसने उनकी अभिलाषा और उनकी इच्छा को यह कहते हुए सराहा, कि देने की उनकी प्रेरणा ही किसी भी माप के उपहार या राशि को स्वीकार्य बनाता है (पद.12) l
हम अक्सर अपने दान की तुलना दूसरों की दान से करने में जल्दबाजी करते हैं, विशेषकर उस समय जब हमारे संसाधन उस माप की बराबरी नहीं करते जो हम देने की इच्छा रखते हैं l किन्तु परमेश्वर हमारे देने को भिन्न दृष्टिकोण से देखता है : जो हमारे पास है उसे देने की हमारी इच्छा ही से वह प्रेम करता है l