मेरे यह लिखते समय मेरी पसंदीदा फुटबॉल टीम लगातार आठ मैच हार चुकी थी l हर एक हार के साथ, उनका इस मौसम में जीत पाने की आशा क्षीण होती दिखाई दे रही थी l कोच ने हर सप्ताह परिवर्तन किये किन्तु यह जीत में परिवर्तित नहीं हो सकी l अपने सहयोगियों के साथ बातचीत करते हुए मैंने मज़ाक किया कि केवल एक भिन्न परिणाम की आशा गारंटी नहीं है l “आशा एक रणनीति नहीं है,” मैंने ताना मारा l

यह फुटबॉल में सही है l लेकिन हमारे आत्मिक जीवनों में, यह बिलकुल विपरीत है l परमेश्वर में आशा उत्पन्न करना एक रणनीति ही नहीं है, किन्तु विश्वास और भरोसे में उससे लिपटे रहना ही एकमात्र रणनीति है l संसार अक्सर हमें निराश करता है, किन्तु परमेश्वर की सच्चाई में आशा हमारी लंगर और अशांत समय में सामर्थ्य है l

मीका ने इस सच्चाई को समझ लिया था l इस्राएल के परमेश्वर से मुह मोड़ लेने के कारण मीका का हृदय टूट चुका था l “हाय मुझ पर ! . . . भक्त लोग पृथ्वी पर से नष्ट हो गए हैं, और मनुष्यों में एक भी सीधा जन नहीं रहा” (7:1-2) l लेकिन उसी समय वह सच्ची आशा पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है : “परन्तु मैं यहोवा की ओर ताकता रहूँगा, मैं अपने उद्धारकर्ता परमेश्वर की बात जोहता रहूँगा; मेरा परमेश्वर मेरी सुनेगा” (पद.7) l

कठिन समय में आशा किस तरह स्थिर रखी जा सकती है? मीका हमें दिखाता है : बाट जोहकर l इंतज़ार करके l प्रार्थना करके l याद करके l अभिभूत करनेवाली हमारी परिस्थितियों में भी परमेश्वर सुनता है l इन क्षणों में, परमेश्वर में अपनी आशा में लिपटे रहना और उसके प्रतिउत्तर में काम करना ही हमारी रणनीति है, केवल एक रणनीति जो जीवन के तूफानों को शांत कर सकता है l