सर्दियों के एक दिन मेरे बच्चों ने स्लेज पर जाने की विनती की। तापमान ज़ीरो डिग्री फारनहाईट तक पहुँचा हुआ था। हिम कण हमारी खिडकियों तक फैले हुए थे। मैंने इस पर विचार किया और हाँ कह दिया , परन्तु उन्हें अच्छे से कपड़े पहनने और एकसाथ रहने और हर पन्द्रह मिनट में अन्दर आने के लिए बताया।

प्रेम में मैंने वे नियम बनाए, ताकि मेरे बच्चे फ्रास्टबाइट के बिना मुक्त हो कर खेल सकें। मेरे विचार से भजन 119 का लेखक परमेश्वर के भले मन्तव्य को पहचान गया, जब उसने लगातार दो पदों को लिखा, जो एक दूसरे के विरोधी प्रतीत होते हैं: “मैं तेरी व्यवस्था पर लगातार सदा सर्वदा चलता रहूँगा” और “मैं चौड़े स्थान में चला फिरा करूँगा, क्योंकि मैंने तेरे उपदेशों की सुधि रखी है” (पद 44-45) । यह कैसे है कि भजनकार ने स्वतन्त्रता और व्यवस्था का पालन करने वाले आत्मिक जीवन को एकसाथ मिला दिया? 

परमेश्वर के बुद्धिमतापूर्ण निर्देशों का पालन करना हमें उन परिणामों से बचाता है, जो उन चुनावों से आते हैं, जिन्हें बाद में बदलना चाहते हैं। दोषभाव और पीड़ा के बोझ के बिना हम अपने जीवनों का आनन्द उठाने के लिए स्वतन्त्र हैं। परमेश्वर हमें यह करो और यह न करो के निर्देशों के साथ नियन्त्रित नहीं करना चाहता, परन्तु उसके निर्देश दर्शाते हैं कि वह हम से प्रेम करता है।

जब मेरे बच्चे स्लेज चला रहे थे, मैंने उन्हें पहाड़ी से तेज़ी से नीचे आते देखा। मैं उनके हंसी के ठाहकों और उनकी गुलाबी हुई गालों को देखकर मुस्कुराई। मेरे द्वारा दी गई सीमाओं में वे स्वतन्त्र थे। यही अकाट्य विरोधाभास परमेश्वर के साथ हमारे सम्बन्ध में भी है-यह हमें भजनकार के साथ यह कहने की ओर ले कर जाता है, “अपनी आज्ञाओं के पथ में मुझ को चला, क्योंकि मैं उसी से प्रसन्न हूँ” (पद 35)।