शाम होने लगी थी जब मैं मध्य चीन के पहाड़ों में कटे सोपानी दीवारों की चोटी के साथ-साथ ली बाओ के पीछे चला l मैं इस तरह के मार्ग पर पहले कभी नहीं चला था, और मैं एक से अधिक कदम आगे नहीं देख सकता था या हमारी बायीं ओर की धरती कितनी गहरी थी l मैं घूँट भरा और ली के अति निकट चला l मुझे नहीं पता था कि हम कहाँ जा रहे थे या इसमें कितना समय लगेगा, लेकिन मुझे अपने मित्र पर भरोसा था l

मैं थोमा के रूप में उसी स्थिति में था, शिष्य जो हमेशा आश्वास्त होने की ज़रूरत महसूस करता था l यीशु ने अपने शिष्यों से कहा कि उसे उनके लिए एक जगह तैयार करने के लिए जाना होगा और वे “वहाँ का मार्ग जानते [थे] कि [वह] कहाँ जा रहा [था]” (यूहन्ना 14:4) l थोमा ने एक तार्किक अनुवर्ती प्रश्न पूछा : “हे प्रभु, हम नहीं जानते कि तू कहाँ जा रहा है; तो मार्ग कैसे जानें?” (पद.5) l 

यीशु ने थोमा के संदेह को यह समझाते हुए शांत नहीं किया कि वह उन्हें कहाँ ले जा रहा था l उसने बस अपने शिष्य को आश्वात किया कि वह ही वहाँ का मार्ग है l और इतना ही पर्याप्त था l 

हमारे भविष्य को लेकर भी हमारे मन में प्रश्न हैं l हममें से कोई भी इस बात का विवरण नहीं जानता है कि आगे क्या है l जीवन उन घुमावों से भरा है जिन्हें हम आते देख नहीं सकते हैं l यह ठीक है l यह यीशु को जानने के लिए पर्याप्त है, जो “मार्ग और सत्य और जीवन है” (पद.6) l 

यीशु जानता है कि आगे क्या है l वह केवल चाहता है कि हम उसके अति निकट चलें l