कई वर्षों तक,  भारत में रहने वाले एक जोड़े ने अपने शहर के एक व्यक्ति के साथ एक मजबूत मित्रता विकसित की और उसके साथ कई बार यीशु के प्रेम और उद्धार की कहानी साझा की l  हालाँकि, उनके मित्र,  भले ही यह समझ गये थे कि मसीह में विश्वास “अधिक महान सत्य था,” वे एक अन्य धर्म के प्रति आजीवन निष्ठा रखने में अनिच्छुक थे l  उनकी चिंता आंशिक रूप से वित्तीय थी,  क्योंकि वे अपने मत/धर्म में एक नेता थे और उन्हें मिलनेवाले मुआवजे पर निर्भर थे l उन्हें अपने समुदाय के लोगों के बीच अपनी प्रतिष्ठा खोने का भी डर था l

दुख के साथ,  उन्होंने समझाया, “ “मैं नदी में अपने हाथों से मछली पकड़ने वाले आदमी की तरह हूँ l मैंने एक में एक छोटी मछली पकड़ रखी है लेकिन एक बड़ी मछली पास ही तैर रही है l बड़ी मछली को पकड़ने के लिए,, मुझे छोटी को जाने देना होगा!”

धनी युवा शासक जिसके विषय मत्ती ने मत्ती 19 में लिखा के पास ऐसी ही समस्या थी l जब वह यीशु के पास गया,  तो उसने पूछा, “मैं कौन सा भला काम करूँ कि अनंत जीवन पाऊं?” (पद.16) l वह ईमानदार लग रहा था,  लेकिन वह अपने जीवन को पूरी तरह से यीशु को सौंपना नहीं चाहता था l वह धनी था, केवल धन में नहीं, लेकिन नियम-अनुयायी के अपने अहंकार में भी l यद्यपि वह शाश्वत जीवन चाहता था,  लेकिन वह कुछ और को अधिक प्यार करता था और उसने मसीह के शब्दों को खारिज कर दिया l

जब हम विनम्रतापूर्वक अपने जीवन को यीशु के सामने समर्पित करते हैं और उसके उद्धार का उपहार स्वीकार कर लेते हैं,  तो वह हमें आमंत्रित करता है,  “आकर, मेरे पीछे हो ले” (पद.21) l