बर्फ की प्रेरक शक्ति
अमेरिका में एक मध्यम-वर्गीय पड़ोस से एक बैंड(संगीत टोली), शहर में हर साल होने वाले परिवर्तन के बारे में एक गीत गाता है। बैंड के सह-संस्थापक बताते हैं, “जब भी हमें साल की पहली असली बर्फबारी मिलती है, तो ऐसा महसूस होता है कि कुछ पवित्र हो रहा है l” थोड़ी सी तरोताज़ी शुरुआत की तरह l शहर धीमा हो जाता था और शांत हो जाता था l”
यदि आपने भारी बर्फबारी का अनुभव किया है, तो आप समझते हैं कि यह एक गीत को कैसे प्रेरित कर सकता है l एक जादुई सन्नाटा संसार को ढंक देता है जैसे कि बर्फ जमी हुयी गन्दगी और धूसरता को ढक देता है । कुछ क्षणों के लिए, सर्दियों की उदासी चमक उठती है, और हमारे आभास और ख़ुशी को आमंत्रित करती है l
एलीहू, अय्यूब का एक मित्र जो ईश्वर के बारे में एक उपयोगी दृष्टिकोण रखता होगा, ने ध्यान दिया कि सृजन कैसे हमारे ध्यान को नियंत्रित करता है l उसने कहा, “परमेश्वर गरजकर अपना शब्द अद्भुत रीति से सुनाता है (अय्यूब 37:5) l “वह तो हिम से कहता है, पृथ्वी पर गिर, और इस प्रकार मेंह को भी और मूसलाधार वर्षा को भी ऐसी ही आज्ञा देता है l” इस तरह की भव्यता हमारे जीवनों में दखल दे सकती है, और एक पवित्र ठहराव की मांग करती है l एलीहू ने ध्यान दिया, “वह सब मनुष्यों के हाथ पर मुहर कर देता है, जिस से उसके बनाए हुए सब मनुष्य उसको पहचाने (पद.6-7) l
प्रकृति कभी-कभी उन तरीकों से हमारा ध्यान आकर्षित करती है जिसे हम पसन्द नहीं करते हैं l हमारे साथ क्या होता है या हम अपने आस-पास क्या देखते हैं, इसकी परवाह किए बिना, हर पल – शानदार, डरावना या दैनिक कार्य – हमारी आराधना को प्रेरित कर सकते हैं l हमारे भीतर कवि का हृदय पवित्र खामोशी के लिए तरसता है l
लिखने का उद्देश्य
“प्रभु मेरा ऊँचा गढ़ है . . . . हम शिविर छोड़ते समय गा रहे थे l” 7 सितंबर, 1943 को, एट्टी हिल्सम ने पोस्टकार्ड पर इन शब्दों को लिखकर ट्रेन से फेंक दिया l वे अंतिम रिकॉर्ड किए गए शब्द थे जो हम उनसे सुन सकते थे l 30 नवंबर, 1943 को ऑउशवेट्ज़ में उनकी हत्या कर दी गई थी l बाद में, (द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान) एक नज़रबंदी-शिविर(concentration camp) में हिल्सम के अनुभवों की डायरी का अनुवाद और प्रकाशन किया गया l उन्होंने परमेश्वर के संसार की सुंदरता के साथ नाज़ी(Nazi/नात्सी/फासिस्ट) कब्जे की भयावहता के बारे में उसके दृष्टिकोण को लेखबद्ध किया l उसकी डायरी का अनुवाद सरसठ भाषाओं में किया गया है - सभी के लिए एक उपहार जो अच्छा और बुरा दोनों को पढ़ेंगे और विश्वास करेंगे l
प्रेरित यूहन्ना ने पृथ्वी पर यीशु के जीवन की कठोर वास्तविकताओं को रद्द नहीं किया; उसने दोनों ही को लिखा, भलाई जो यीशु ने किया और चुनौतियाँ जिनका उसने सामना किया l उसके सुसमाचार के अंतिम शब्द उस पुस्तक के पीछे के उद्देश्य का बोध कराते हैं जो उसके नाम है l यीशु ने “बहुत से चिन्ह . . . दिखाए,” ((20:30) जो यूहन्ना द्वारा लिखे नहीं गए l लेकिन ये शब्द, उसका कहना है, “इसलिए लिखे गए हैं कि तुम विश्वास करो” (पद.31) l यूहन्ना की “डायरी” विजय के स्वर पर समाप्त होती है : “यीशु ही परमेश्वर का पुत्र मसीह है l” सुसमाचार के इन शब्दों का उपहार हमें विश्वास करने और “उसके नाम से जीवन” पाने का अवसर देता है l
सुसमाचार हमारे लिए परमेश्वर के प्रेम का डायरी खाता है l वे शब्द पढ़ने और विश्वास करने और साझा करने के लिए हैं, क्योंकि वे हमें जीवन की ओर ले जाते हैं l वे हमें मसीह की ओर ले जाते हैं l
परमेश्वर से गिड़गिड़ाना
एक सुबह एक परिवार की प्रार्थना का समय एक आश्चर्यजनक घोषणा के साथ समाप्त हुआ l जैसे ही पिताजी ने कहा, “आमीन,” पाँच वर्षीय कवि ने प्रगट की, “और मैंने जॉन के लिए प्रार्थना की, क्योंकि प्रार्थना के दौरान उसकी आँखें खुली थीं l”
मुझे पूरा यकीन है कि आपके दस वर्षीय भाई के प्रार्थना औचित्य(protocol) के लिए प्रार्थना करना हमारे लिए पवित्रशास्त्र का लक्ष्य नहीं है, जब यह हमें परहित प्रार्थना करने के लिए कहता है, लेकिन कम से कम कवि को एहसास हुआ कि हम दूसरों के लिए प्रार्थना कर सकते हैं l
बाइबल शिक्षक ऑसवॉलल्ड चेम्बर्स ने किसी और के लिए प्रार्थना करने के महत्व पर जोर दिया l उन्होंने कहा कि “मध्यस्थता की प्रार्थना अपने आप को परमेश्वर के स्थान पर रखना है; यह आपके भीतर उसका मन और दृष्टिकोण का होना है l” यह उस प्रकाश में दूसरों के लिए प्रार्थना करना है कि हम परमेश्वर के विषय और हमारे लिए उसके प्रेम के बारे में क्या जानते हैं l
हम दानिय्येल 9 में मध्यस्थता की प्रार्थना का एक बड़ा उदाहरण पाते हैं l नबी ने परमेश्वर के परेशान करने वाले वादे को समझ लिया कि यहूदी बेबीलोन में सत्तर साल के दासत्व में रहेंगे (यिर्मयाह 25:11-12) l यह महसूस करते हुए कि वे वर्ष पूरा होने के करीब थे, दानिय्येल प्रार्थना के भाव में चला गया l उसने परमेश्वर की आज्ञाओं का हवाला दिया (दानिय्येल 9:4-6), खुद को दीन किया (पद.8), परमेश्वर के चरित्र को आदर दिया (पद.9), पाप स्वीकार किया (पद.15), और उसकी दया पर निर्भर हुआ जब वह अपने लोगों के लिए प्रार्थना करता था (पद.18) l और उसे परमेश्वर का तत्काल उत्तर मिला (पद.21) l
इस तरह की नाटकीय प्रतिक्रिया के साथ सभी प्रार्थनाएं समाप्त नहीं होती हैं, लेकिन हम इस बात के लिए प्रोत्साहित हो सकते हैं कि हम दूसरों के लिए परमेश्वर पर विश्वास और निर्भरता के साथ जा सकते हैं l
अपने काम पर ध्यान देना
वर्षों पहले, मेरे बेटे जोश और मैं एक पहाड़ी रास्ते पर जा रहे थे जब हमने हवा में उठते धूल का एक बादल देखा l हम आगे बढ़े और एक जानवर को मिटटी के एक ढेर में एक बिल बनाने में व्यस्त देखा l उसके सिर और कंधे बिल में थे और वह अपने सामने के पंजे से जोर से खुदाई कर रहा था और अपने पिछले पैरों से बिल में से मिटटी बाहर निकाल रहा था l वह अपने काम में इतना मग्न था कि उसने हमें सुना नहीं l
मैं रुक नहीं सकता था और पास में पड़ी एक लंबी छड़ी से उसे उकसाया l मैंने जानवर को चोट नहीं पहुंचाई, लेकिन उसने सीधे हवा में छलांग लगा दी और हमारी ओर बढ़ा l जोश और मैंने सौ-गज दौड़ के लिए नए विश्व रिकॉर्ड बनाए l
मैंने अपनी दुस्साहस से कुछ सीखा : कभी-कभी अन्य लोगों के काम में न झाँकना ही सबसे उत्तम होता है l यीशु में सहविश्वासियों के साथ संबंधों में यह विशेष रूप से सच है l प्रेरित पौलुस ने थिस्सलुनीकियों को “चुपचाप रहने और अपना-अपना काम काज करने और अपने अपने हाथों से कमाने का प्रयत्न” करने हेतु प्रोत्साहित किया (1 थिस्सलुनीकियों 4:11) l हमें दूसरों के लिए प्रार्थना करनी चाहिए और परमेश्वर के अनुग्रह से वचन साझा करने की कोशिश करनी चाहिए और कभी-कभी हमें सुधार के एक कोमल शब्द की पेशकश करने के लिए कहा जा सकता है l लेकिन एक शांत जीवन जीना सीखना और दूसरों के जीवन में दखल न देना महत्वपूर्ण है l यह उन लोगों के लिए एक उदाहरण बन जाता है जो अभी परमेश्वर के परिवार में नहीं हैं (पद.12) l हमारी बुलाहट “आपस में प्रेम रखना [है]” (पद.9) l