जब मैं किशोर था, मेरी माँ ने हमारे बैठक की दीवार पर एक भित्ति-चित्र(mural) पेंट  किया, जो कई वर्षों तक वहाँ रहा l इसमें प्राचीन यूनानी दृश्य दर्शाया गया था जिसमें एक खंडहर मंदिर के किनारे पड़े हुए सफ़ेद स्तम्भ, एक ढहता हुआ फव्वारा और एक टूटी हुई  मूर्ती थी l जब मैंने उस हेलेनिस्टिक वास्तुकला(सिकंदर महान के बाद की वास्तुकला) को देखा जो कभी बड़ी सुन्दर लगती थी, मैंने कल्पना करने की कोशिश की कि यह कैसे नष्ट हुआ था l मैं उत्सुक थी, खासकर जब मैंने सभ्यताओं की त्रासदी के बारे में अध्ययन करना शुरू किया, जो कभी महान और उन्नतशील थे, जो अन्दर से बिगड़कर और चूर-चूर हो गए थे l  

आज हम अपने आस-पास जो अधर्मी भ्रष्टता और प्रचंड विनाश देख रहे हैं वह परेशान करनेवाला हो सकता है l हमारे लिए यह स्वाभाविक है कि हम उन लोगों और राष्ट्रों की ओर इशारा करके समझाने का प्रयास करें जिन्होंने ईश्वर को अविकार किया है l लेकिन क्या हमें अपनी निगाहें अपने अन्दर भी नहीं करना चाहिए? पवित्रशास्त्र हमें पाखंडी होने के बारे में चेतावनी देता है, जब हम अपने हृदयों के अन्दर गहराई से न देखते हुए दूसरों को उनके पापी तरीकों से मुड़ने के लिए कहते हैं (मत्ती 7:1-5) l 

भजन 32 हमें अपने पाप देखने और अंगीकार करने की चुनौती देता है l यह केवल तभी संभव है जब हम अपने व्यक्तिगत पाप को पहचानते और स्वीकार करते हैं कि हम अपराध से मुक्ति और सच्चे पश्चाताप की ख़ुशी का अनुभव कर सकते हैं (पद.1-5) l और जैसे कि हम यह जानकार खुश होते हैं कि परमेश्वर हमें पूर्ण क्षमा प्रदान करता है, हम उस आशा को दूसरों के साथ साझा कर सकते हैं जो भी पाप से जूझ रहे हैं l