1980 के दशक की शुरुआत में, भारत एक उज्ज्वल भविष्य की प्रत्याशा से भर गया था। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद अशांति के बावजूद उनके बेटे राजीव गांधी को भारी बहुमत के साथ सत्ता सँभालने के लिए वोट दिया गया था। युवा, सुशिक्षित प्रधान मंत्री ने पद ग्रहण किया, और लोगों को आराम की अवधि की आशा थी। लेकिन राष्ट्रीय अशांति के बाद भोपाल गैस त्रासदी, बोफोर्स कांड और श्रीलंका में “शांति” सैनिकों का अनुचित हस्तक्षेप हुआ। राजीव गांधी की हत्या कर दी गई और उस पहले के आशावादी समाज के स्वीकृत मानदंडों को ध्वस्त कर दिया गया। आशावाद बस पर्याप्त नहीं था, और इसके मद्देनजर मोहभंग हो गया।

फिर, 1967 में, धर्मशास्त्री जुर्गन मोल्टमैन के ए थियोलॉजी ऑफ होप (A Theology of Hope) ने एक स्पष्ट दृष्टि की ओर इशारा किया। यह रास्ता आशावाद का नहीं बल्कि आशा का रास्ता था। दोनों एक ही बात नहीं हैं। मोल्टमैन ने पुष्टि की कि आशावाद इस समय की परिस्थितियों पर आधारित है, लेकिन आशा परमेश्वर की विश्वासयोग्यता में निहित है—हमारी स्थिति चाहे जो भी हो।

इस आशा का स्रोत क्या है? पतरस ने लिखा, “हमारे प्रभु यीशु मसीह के परमेश्वर और पिता का धन्यवाद दो, जिस ने यीशु मसीह के मरे हुओं में से जी उठने के द्वारा, अपनी बड़ी दया से हमें जीवित आशा के लिये नया जन्म दिया”(1 पतरस 1:3)। हमारे विश्वासयोग्य परमेश्वर ने अपने पुत्र, यीशु के द्वारा मृत्यु पर विजय प्राप्त की है! इस सबसे बड़ी जीत की वास्तविकता हमें महज आशावाद से परे एक मजबूत, मजबूत आशा की ओर ले जाती है – हर दिन और हर परिस्थिति में।