अरुण अपने पिता की मृत्यु के बाद उनका सामान लेने के लिए वृद्धाश्रम में गया। कर्मचारियों ने उसे दो छोटे बक्से सौंपे। उसने कहा कि उस दिन उसे यह महसूस हुआ कि खुश रहने के लिए वास्तव में बहुत सारी संपत्ति नहीं चाहिए होती।

उसके पिता, सतीश, चिन्तामुक्त और हमेशा एक मुस्कान और दूसरों के लिए एक उत्साहजनक शब्द के साथ तैयार रहते थे। उनकी खुशी का कारण एक दूसरी  “संपत्ति” थी जो किसी बक्से में नहीं समा सकती थी : उनके उद्धारकर्ता, यीशु में एक अटूट विश्वास।

यीशु हमसे आग्रह करते हैं कि “अपने लिए स्वर्ग में धन इकट्ठा करो” (मत्ती 6:20)। उन्होंने यह नहीं कहा कि हम एक घर या गाड़ी नहीं खरीद सकते हैं या भविष्य के लिए धन नहीं जोड़ सकते या हमारे पास अन्य कई संपत्तियां नहीं हो सकती। परन्तु वह हमसे यह आग्रह करते है कि हम जांचे कि हमारा हृदय कहाँ केंद्रित है। सतीश का ध्यान कहाँ था? दूसरों से प्रेम करने के द्वारा परमेश्वर से प्रेम करने पर। वह उन बड़े कमरों में ऊपर और नीचे घूमते थे जहां वे रहते थे, अपने मिलने वालों का अभिवादन और उनको प्रोत्साहित करते थे । अगर किसी की आंखों में आंसू होते, तो वह एक सुकून देने वाले शब्द या सुनने वाले कान या दिल से की गई प्रार्थना करने के लिए मौजूद रहते थे। उनका मन इस बात पर केंद्रित था कि वह अपना जीवन परमेश्वर का आदर और दूसरों की भलाई करने के लिए जीएँ।

हम शायद खुद से पूछना चाहेंगे कि क्या हम कम चीजों में भी खुश रह सकते हैं जो हमें दौड़-धूप कराती हैं और हमें परमेश्वर और दूसरों से प्रेम करने के अधिक महत्वपूर्ण विषय से विचलित करती हैं। “जहाँ [हमारा] धन है, वहाँ [हमारा] मन भी रहेगा” (पद 21 )। हम जिस चीज को महत्व देते हैं, वह इस बात से झलकती है कि हम कैसे जीवन जीते हैं।