जब हमारी दत्तक नानी कई आघात(stroke) झेलने के बाद अस्पताल के अपने बिस्तर पर लेठी थी, उनके डॉक्टर इस को लेकर अनिश्चित थे कि उन्हें कितनी मस्तिष्क क्षति हुई है l उन्हें उनके मस्तिष्क के कार्य का परिक्षण करने के लिए उनके थोड़ा बेहतर होने तक प्रतीक्षा करना था l वह बहुत कम शब्द बोलती थी और उससे भी कम शब्द समझ में आते थे l लेकिन जब छियासी वर्ष की वह स्त्री जिसने 12 वर्ष मेरी बेटी की देखभाल की थी ने मुझे देखा, तो उसने अपना सूखा मुँह खोलकर पूछा : कैला कैसी है?” उसने मुझसे जो पहले शब्द कहे, वे मेरे बच्चे के बारे में थे, जिसे उसने इतनी अधिकता और पूरी तरह से प्यार किया था l

यीशु भी बच्चों से प्यार करता था और उन्हें आगे रखता था भले ही उसके शिष्यों ने उन्हें अस्वीकार किया l कुछ माता-पिता मसीह को ढूँढकर अपने बच्चों को उसके पास लाते थे l उसने बच्चों को आशीष देते हुए “उन पर हाथ रखे” (लूका 18:15) l लेकिन सब इस बात से प्रसन्न नहीं थे कि वह छोटों को आशीष दे रहा था l चेलों ने माता-पिता को डांटा और उनसे यीशु को परेशान करना बंद करने को कहा l लेकिन उसने हस्तक्षेप किया और कहा, “बच्चों को मेरे पास आने दो” (पद.16) l उसने उन्हें एक उदाहरण बताया कि हमें कैसे परमेश्वर के राज्य को स्वीकार करना चाहिए—सरल भरोसा, विश्वास और सच्चाई के साथ l

छोटे बच्चों के पास संभवतः ही कोई छिपी हुई कार्य-सूची होती है l आप जो देख रहे हैं वही आपको मिलेगा l जैसा कि हमारा स्वर्गीय पिता हमें बच्चों के समान विश्वास प्राप्त करने में सहायता करता है, काश हमारा विश्वास और उस पर भरोसा एक बच्चे की तरह खुली हो l