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Articles by लेस्ली कोह

माँ का प्रेम

सु की युवावस्था में, उसके माता-पिता के तलाक के बाद उसकी परवरिश सम्बन्धी कानूनी लड़ाई और अन्य मामलों के परिणामस्वरूप उसे कुछ समय के लिए बाल-आश्रम में रहना पड़ा l बड़े बच्चों के परेशान करने के कारण, उसने खुद को अकेला और तिरस्कृत समझा l हर महीने उसकी माँ उससे मिलने एक बार आती थी, और वह अपने पिता से शायद ही मिलती थी l कई वर्षों के बाद, हालाँकि, उसकी माँ ने उसे बताया कि बाल-आश्रम के नियमों के कारण वह अक्सर उससे मिलने नहीं आ पाती थी, और ज्यादातर, वह प्रतिदिन बाड़े के निकट खड़ी होकर उसकी एक झलक पाने की आशा करती थी l कभी-कभी,” उसने कहा, “मैं तुम्हें गार्डन में खेलती हुई देखती थी, केवल यह जानने के लिए कि तुम ठीक होगी l”
जब सु ने यह कहानी बतायी, इससे मुझे परमेश्वर के प्रेम का एक झलक मिला l कभी-कभी हम अपने संघर्षों में त्यागे हुए और अकेला महसूस करेंगे l यह जानना कितना सुखकर है कि वास्तव में परमेश्वर हमेशा हमारी निगरानी कर रहा है (भजन 33:18) l यद्यपि हम उसे देख नहीं सकते, वह मौजूद है l एक प्रेमी अभिभावक की तरह, उसकी आँखें और उसका हृदय हमेशा और हर जगह हमारे ऊपर रहता है l फिर भी, सु की माँ के विपरीत, वह इस समय भी हमारे पक्ष में कार्य कर सकता है l
भजन 91 परमेश्वर का अपने बच्चों के छुटकारा, सुरक्षा और उन्हें थामे रहने का वर्णन करता है l वह शरणस्थान और आश्रय से बढ़ कर है l जब हम जीवन की अंधकारमय घाटियों में होकर जाते हैं, हम इस बोध में विश्राम पाते हैं कि सर्वशक्तिमान प्रभु हमेशा हमारी निगरानी करता है और हमारे जीवनों में क्रियाशील है l वह घोषणा करता है, “मैं [तुम्हारी] सुनूंगा, संकट में मैं [तुम्हारे] संग रहूँगा, मैं [तुम्हें बचाऊंगा]” (पद.15) l

निर्माण न रोकें

जब काम में एक नयी भूमिका निभाने का अवसर मिला, साइमन ने उसे परमेश्वर की ओर से माना l निर्णय पर प्रार्थना करके और सलाह लेकर, उसने महसूस किया कि परमेश्वर उसे और बड़ी जिम्मेदारी दे रहा है l सब कुछ ठीक था, और उसके बॉस ने उसके कदम को सराहा l तब बातें बिगड़ने लगीं l कुछ सहयोगियों ने उसकी पदोन्नति से अप्रसन्न होकर सहयोग बंद किया l वह यह जिम्मेदारी छोड़ने पर विचार करने लगा l
जब इस्राएली परमेश्वर का घर बनाने यरूशलेम लौटे, शत्रुओं ने उन्हें भयभीत और हतोत्साहित किया (एज्रा 4:4) l पहले तो इस्राएली ठहर गए, किन्तु परमेश्वर द्वारा हाग्गै और जकर्याह नबी के उत्साहवर्धन के बाद निर्माण जारी रहा (4:24-5:2) l
एक बार फिर, शत्रु उनको परेशान करने आए l किन्तु यह जानकार कि "परमेश्वर की दृष्टि उन पर [लगी हुयी है]" (5:5) वे लगे रहे l वे दृढ़ता से परमेश्वर के निर्देशों को थामे हुए और उसपर भरोसा करके हर एक विरोध के बीच निर्माण जारी रखा l निश्चित रूप से, परमेश्वर ने मंदिर निर्माण पूरा होने के लिए फारस के राजा का समर्थन उनकी ओर कर दिया (पद.13-14) l
उसी प्रकार, साइमन ने यह समझने के लिए परमेश्वर की बुद्धिमत्ता मांगी कि उसे वहाँ रहना चाहिए या नयी जगह खोजनी चाहिए l वहाँ रहने हेतु परमेश्वर की इच्छा को जानकार, उसने दृढ़ रहने के लिए परमेश्वर की सामर्थ्य पर भरोसा किया l समय के साथ, उसने धीरे-धीरे अपने सहयोगियों की स्वीकृति प्राप्त कर लिया l
जब हम परमेश्वर का अनुसरण करते हैं, जहाँ भी वह हमें रखता है, हम विरोध का सामना कर सकते हैं l उसी समय हमें उसका अनुसरण करना होगा l वह हमारा मार्गदर्शन करते हुए हमें लिए चलेगा l

सर्वदा स्वीकार्य

अनेक वर्षों तक एंजी अपनी पढ़ाई में संघर्ष करती रही, जिसके बाद उसे, सर्वोत्कृष्ट प्रार्थमिक स्कूल से निकाल कर एक “साधारण” स्कूल में भर्ती कर दिया गया l सिंगापुर में जहां बहुत ही प्रतियोगी शिक्षा का परिदृश्य है, जहां एक “अच्छे” स्कूल में किसी की भावी संभावनाएं सुधर सकती है, अनेक लोगों ने इसे पराजय के रूप में देखा l   
एंजी के माता-पिता निराश थे, और एंजी ने भी खुद के विषय सोचा मानो उसे नीचे उतार  दिया गया है l किन्तु नये स्कूल में जाने के शीघ्र बाद, नौ वर्ष की एंजी समझ गयी कि औसत विद्यार्थियों की क्लास में पढ़ने का क्या अर्थ होता है l उसने कहा, “माँ, मैं सही जगह पर हूँ, यहाँ मैं स्वीकारी गयी हूँ!”
मैंने इस बात को याद किया कि जक्कई कितना उत्साहित हुआ होगा जब यीशु ने खुद ही उस चुंगी लेनेवाले के घर में जाने को तैयार हुआ होगा (लूका 19:5) l मसीह ने उन लोगों के साथ भोजन करने में रूचि लिया जिन्हें मालूम था कि वे दोषपूर्ण हैं और परमेश्वर के अनुग्रह के योग्य नहीं (पद.10) l हम जैसे भी हैं, यीशु हमें खोजकर और हमसे प्रेम करके अपनी मृत्यु और पुनरुत्थान द्वारा पूर्ण करने की प्रतिज्ञा देता है l हम उसके अनुग्रह द्वारा ही सिद्ध बनाए जाते हैं l
यह जानते हुए कि मेरा जीवन परमेश्वर के मानक के बराबर नहीं है, मैंने अक्सर अपनी आत्मिक यात्रा को संघर्षशील पाया है l यह जानना कितना आरामदायक है कि हम सर्वदा स्वीकार्य हैं, क्योंकि पवित्र आत्मा हमें यीशु की तरह बनाने में लगा हुआ है l

पहले परमेश्वर से पूछना

हमारे विवाह के आरंभिक दिनों में, मैं अपनी पत्नी की प्रार्थमिकताओं को समझने में संघर्ष करता था l क्या वह घर में सादा डिनर खाना पसंद करेगी या किसी महेंगे रेस्टोरेंट में? क्या मैं अपने मित्रों के साथ घूम सकता हूँ या वह चाहती है कि मैं अपना सप्ताहांत उसके साथ रहने के लिए कार्यमुक्त रखूं?  एक बार, अनुमान लगाने और निर्णय करने से पहले, मैंने उससे पूछा, “तुम क्या चाहती हो?”

उसने स्नेही मुस्करहट से जवाब दिया, “कोई भी एक मेरे लिए ठीक है l मैं खुश हूँ क्योंकि तुम ने मेरे विषय सोचा l”

कभी-कभी मैं मायूसी में स्पष्ट रूप से जानना चाहता था कि परमेश्वर क्या चाहता है कि मैं करूँ - जैसे कौन सी नौकरी करूँ l मार्गदर्शन के लिए प्रार्थना और बाइबल पठन से मुझे कोई ख़ास उत्तर नहीं मिले l किन्तु एक उत्तर स्पष्ट था : मुझे प्रभु में भरोसा करना था, और उसी को अपना सुख का मूल जानना था, और अपने मार्ग की चिंता उसी पर छोड़नी थी (भजन 37:3-5) l

उसी समय मैंने जाना कि यदि हम अपनी इच्छा के आगे परमेश्वर की इच्छा को रखते हैं, वह  अक्सर हमें चुनाव करने की स्वतंत्रता देता है l इसका मतलब है गलत चुनावों या उसको अप्रसन्न करने वाले चुनावों को छोड़ देना l वह कुछ अनैतिक, अधर्मी, या जो उसके साथ हमारे सम्बन्ध में सहायक नहीं हैं हो सकते हैं l यदि बाकी विकल्प परमेश्वर को प्रसन्न करते हैं, तो हम उनमें से चुनने के लिए स्वतंत्र हैं l हमारा प्रेमी पिता हमारे हृदय की इच्छाएँ पूरी करना चाहता है अर्थात् जो हृदय उसको अपने सुख का मूल मानते हैं l

देने का आनन्द

चाची की किडनी फेल होने की बात सुन कर मैं उदास थी। मन किया कि उनसे मिलने जाना फ़िलहाल टाल दूं। तोभी मैं उनसे मिलने गई, हमने साथ खाना खाया, बातें की और प्रार्थना की।  एक घंटे बाद वहाँ से निकलते हुए मैं इतनी उत्साहित थी, जितनी बहुत दिनों बाद पहली बार हुई थी। इसप्रकार अपने अलावा किसी अन्य पर ध्यान केन्द्रित करने से मेरा मूड कुछ सुधर गया।

मनोवैज्ञानिकों के अनुसार देना संतोष देता है, जो लेने वाले में कृतज्ञता देखकर मिलता है। कुछ विशेषज्ञ कहते हैं कि मनुष्य की रचना उदार बनने के लिए हुई है!

थिस्सलुनिकियों की कलीसिया को अपने विश्वासी समुदाय का निर्माण करने की प्रेरणा देते हुए शायद इसीलिए पौलुस ने उनसे आग्रह किया कि वे “दुर्बलों को संभालें” (1 थिस्सलुनीकियों 5:14)। और यीशु के इन शब्दों को उद्धृत किया, "कि लेने से देना..." (प्रेरितों के काम 20:35)। भले ही यह आर्थिक दान के संदर्भ में था, समय और प्रयास दान के साथ भी ऐसा ही है।

देने द्वारा ही हम समझ सकते हैं कि परमेश्वर कैसा महसूस करते हैं, और वह हमें अपना प्रेम देकर इतने आनन्दित क्यों होते हैं, और यह कि हम उनके आनन्द और दूसरों को आशीष देने की संतुष्टि में सहभागी हैं। मन करता है कि अपनी चाची को फिर देख आऊँ।

खरापन

दक्षिण एशियाई खेलों में मैराथन दौड़ के दौरान सिंगापुर के एशले लियू बढ़त बनाने पर समझ गए कि गलत मोड़ लेने के कारण अग्रणी धावक पीछे रह गए थे। एशले उनकी गलती का लाभ उठा सकते थे परंतु उनकी खिलाड़ी-भावना ने कहा कि यह वास्तविक जीत ना होगी। वह इसलिए जीतना चाहते थे क्योंकि तेज धावक थे-किसी की गलती के कारण नहीं। अपनी भावना पर उन्होंने गति धीमी कर दी ताकि दूसरे उनके बराबर पहुंच सके।

अंततः एशले दौड़ और पदक हार गए। परंतु उन्होंने अपने देशवासियों के दिलों को-और निष्पक्ष खेल के लिए अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार जीता। मसीही के रूप में यह उनके विश्वास की अच्छी गवाही थी,  जिससे कईयों ने पूछा होगा, “ वह क्या था जिसने उनसे ऐसा  करवाया?"

उनका यह काम मुझे मेरे कामों से अपने विश्वास को बाँटने की चुनौती देता है। विचारशीलता, दया, या क्षमा जैसे छोटे-छोटे काम परमेश्वर को महिमा दे सकते हैं। जैसे पौलुस कहते हैं, “सब बातों में... (तीतुस 2:7–8)।

दूसरों के लिए किए हमारे सकारात्मक काम संसार को दिखा सकते हैं कि अपने भीतर पवित्र आत्मा के कार्य के कारण हम दूसरों से अलग जीवन जी सकते हैं। अभक्ति और सांसारिक अभिलाषाओं से मन फेर कर संयम और धर्म और भक्ति से जीवन जीने का हमें वह अनुग्रह देंगे (पद 11-12)।

एक दोहरा वादा

वर्षों कैंसर का सामना करते-करते, रूत को खाने-पीने यहां तक ​​ठीक से निगलने में कठिनाई है। वह अपनी अधिकांश शारीरिक शक्ति खो चुकी है, और कई सर्जरी और उपचारों ने उसे जो वह थी उसकी परछाई बना दिया है। तोभी रूत परमेश्वर की प्रशंसा करने में सक्षम है; उसकी आस्था मजबूत और आनन्द संक्रामक है। वह प्रतिदिन परमेश्वर पर निर्भर करती है, और आशा करती है कि वह ठीक हो जाएगी। वह चंगाई के लिए प्रार्थना और विश्वास करती है कि परमेश्वर उत्तर देंगे-आज नहीं तो कल। कितना अद्भुत विश्वास है!

रुत के विश्वास को यह बोध मजबूत बनाता है कि परमेश्वर न केवल समय पर अपने वायदों को पूरा करेंगे वरन जब तक यह हो न जाए वह उसकी रक्षा करेंगे। यही आशा परमेश्वर के लोगों में थी, जब वह उनकी योजनाओं के पूरा होने की प्रतीक्षा कर रहे थे (यशायाह 25:1), शत्रुओं से छुड़ाने(पद 2), आंसू पोंछने, नामधराई दूर करने और मृत्यु का सदा के लिए नाश करने की आशा(पद 8)। तब तक, परमेश्वर ने अपने लोगों को शरण और आश्रय, कठिनाइयों में दिलासा, सहन करने का बल और यह विश्वास दिया कि वह उनके साथ थे।

यह हमारा दोहरा वायदा है- एक दिन उद्धार पाने, और जीवन में दिलासा, सामर्थ और आश्रय प्राप्त करने की हमारी आशा।  

खोया था पर मिल गया

एक रिश्तेदार के साथ खरीदारी करते हुए मेरी सास गुम हो गई, तो मेरी पत्नी और मैं अत्यधिक चिंतित थे। उन्हें भूलने और भ्रम की बीमारी थी, पता नहीं ऐसी अवस्था में वह क्या करेंगी। हमने उन्हें खोजना शुरू कर दिया,  और परमेश्वर को यह कहते हुए पुकारा," कृपया उन्हें ढूंढिए"।

कुछ घंटे बाद वह मीलों दूर सड़क पर वह मिल गईं। उन्हें खोजने में सक्षम बनाने में परमेश्वर ने हमें कैसे आशीष दे दीथी। महीनों बाद मसीह ने उन्हें आशीषित किया। अस्सी वर्ष की आयु में, उद्धार पाने के लिए मेरी सास ने यीशु मसीह को ग्रहण किया।

यीशु, मनुष्य की तुलना भेड़ों से करते हुए, कहते हैं: तुम में से कौन है जिस की सौ भेड़ें हों, और उन में से एक खो जाए...(लूका 15:4–6)।

चरवाहों ने अपनी भेड़ों को इसलिए गिना, ताकि हर एक का पता लगा सके। यीशु, जो स्वयं की तुलना उस चरवाहा के साथ करते हैं, हम सभी को मूल्यवान मानते हैं। हम अपने जीवन में भटक रहे हों, खोज कर रहे हों या अपने उद्देश्य के बारे में विचार कर रहे हों तो मसीह के पास जाने के लिए कभी देर नहीं होती। परमेश्वर की यही इच्छा है कि हम उनके प्रेम और आशीषों का अनुभव करें।

सबसे प्रेम रखना

हमारी कलीसिया सिंगापुर के द्वीप में स्थित एक खुले मैदान में लगती है। जहाँ मेरे देश में कार्यरत कुछ विदेशियों ने , हर रविवार पिकनिक के लिए एकत्रित होना आरम्भ कर दिया।

इस बात से कलीसिया के सदस्यों में भिन्न प्रतिक्रियाएं उत्पन्न हो गईं। कुछ लोग उनके द्वारा पीछे छोड़े जाने वाले गंदगी की बात पर कुडकुडा रहे थे। अन्य इसे परदेसियों को आतिथ्य प्रदान करने का एक दिव्य अवसर मान रहे थे-बिना कलीसिया के मैदान को छोड़े।

नई भूमि में बसने पर दूसरों के साथ ताल-मेल बैठाने में इस्राएलियों को भी समस्याएं आई होंगी। परमेश्वर ने उन्हें विदेशियों के साथ वैसा ही व्यवहार करने की स्पष्ट आज्ञा दी जैसा वे अपने लोगों के साथ करते थे। और वैसा ही प्रेम करने की आज्ञा दी जैसा वे स्वयं से करते थे (लैव्यवस्था 19:34)। उनकी कई व्यवस्थाओं में विदेशियों का विशेष उल्लेख था। उनके साथ दुर्व्यवहार या उनका दमन नहीं किया जाना चाहिए,  उनसे प्रेम करना और उनकी मदद करना (निर्गमन 23:9; व्यवस्थाविवरण 10:19)। सदियों बाद, यीशु हमें ऐसा ही करने का आदेश देंगे: अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम करो। (मरकुस 12:31)

हमें याद रखन चाहिए कि हम लोग भी इस पृथ्वी पर प्रवासी हैं। तो भी हमसे परमेश्वर के लोगों के रूप में प्रेम और व्यवहार किया गया है।