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Articles by सोचितल डिक्सॉन

करुणा की उम्मीद और प्रसार

अपनी एक सहेली की शिकायत करने पर कि उसके चुनाव उसे भारी पाप में ले जा रहे हैं और मैं उससे प्रभावित हूँ, जिस स्त्री के संग मैं साप्ताहिक प्रार्थना करती थी, ने मेरा हाथ थामकर बोली, “आओ हम हमारे लिए प्रार्थना करें l”

मैंने भौं सिकोड़ा l “हम सब?”

उसने कहा, “हाँ, तुम्हारे अनुसार यीशु हमारी पवित्रता का मानक है, इसलिए हमें अपने पापों की तुलना दूसरों के पापों से नहीं करनी चाहिए l”

मैंने उत्तर दिया, “यह सच्चाई थोड़ी कठोर है, किन्तु सच l मेरा आलोचनात्मक आचरण और आत्मिक अहंकार उसके पाप से बेहतर या बुरा नहीं है l”

“और तुम्हारी सहेली की बात करके हम बकवाद कर रहे हैं l इसलिए ---.”

“हम पाप कर रहे हैं l” मैंने सिर झुका लिए l “कृपया हमारे लिए प्रार्थना करें l”

लूका 18 में यीशु ने मंदिर में दो व्यक्तियों की बिल्कुल भिन्न प्रार्थनाएँ बतायीं (पद.9-14) l फरीसी की तरह, हम दूसरों के साथ अपनी तुलना और बड़ाई करके (पद.11-12) दूसरों के जीवन का न्याय और उनको बदलने की जिम्मेदारी या ताकत रखने का दावा कर सकते हैं l

किन्तु चुंगी लेनेवाले की तरह यीशु को पवित्र जीवन का आदर्श मानकर और उसकी भलाई का प्रत्यक्ष सामना करके परमेश्वर के अनुग्रह की हमारी ज़रूरत बढ़ जाती है(पद.13) l और हम व्यक्तिगत तौर पर प्रभु के प्रेमी करुणा और क्षमा का अनुभव करके करुणा चाहने और देने हेतु पूर्णरूपेण बदल जाएंगे l

सदा बहार पुष्प

मेरा  बेटा ज़ेवियर बचपन में, मुझे फूल देना पसंद करता था l उसके द्वारा तोड़ा या अपने पिता के संग ख़रीदे गए छोटे-बड़े ताज़े फूल की मैं प्रशंसक थी, और मुरझाने तक उनको संयोजती थी l

एक दिन, ज़ेवियर ने मुझे बनावटी फूलों का एक सुन्दर गुलदस्ता दिया l वह सफ़ेद सोसन, पीला सूर्यमुखी, और बैंजनी सदाबहार फूलों को एक फूलदान में सजाते हुए मुस्करा कर बोला, “मम्मी, ये सदैव रहेंगे l मैं इसी तरह तुमसे प्रेम करता हूँ l”

अब मेरा बेटा युवा है l वे सफ़ेद पंखुड़ियां धूमिल हो गईं हैं l फिर भी सदाबहार फूल मुझे उसके गहरे प्रेम की याद दिलाते हुए, अचूक और चिरस्थायी वचन में वर्णित परमेश्वर के असीमित और अनंत प्रेम याद दिलाते हैं (यशा. 40:8) l

इस्राएलियों के निरंतर क्लेश में, यशायाह ने भरोसे से उनको परमेश्वर के चिरस्थायी वचन से सान्त्वना दी (40:1) l उसने घोषणा की कि परमेश्वर ने इस्राएलियों के पाप के दंड को चुकाया है (पद.2), भावी उद्धारकर्ता में उनकी आशा को सुरक्षित किया है (पद.3-5) l उन्होंने नबी पर भरोसा किया क्योंकि उसका केंद्र उनकी परिस्थितियाँ नहीं बल्कि परमेश्वर था l

अनिश्चितता और दुखित संसार में, मनुष्य का विचार और हमारी अपनी भावनाएं भी हमारी नश्वरता की तरह बदलती और सीमित हैं (पद.6-7) l फिर भी, हम परमेश्वर के निरंतर और अनंत सत्य वचन में प्रगट उसके अपरिवर्तनीय प्रेम और चरित्र पर भरोसा कर सकते हैं l

क्या मैं क्षमा करूँ?

मैं एक घटना की तैयारी हेतु अपने चर्च में जल्दी पहुँच गयी l अतीत में मेरे प्रति क्रूर और आलोचनात्मक रही एक स्त्री चर्च की वेदी के दूसरी ओर खड़ी रो रही थी l इसलिए मैंने जल्द ही वैक्युम क्लीनर की आवाज़ में उसकी सिसकियों को दबा दिया l मुझे पसंद नहीं करने वाले की चिंता मैं करूँ क्यों?

पवित्र आत्मा ने मुझे परमेश्वर की बड़ी क्षमा स्मरण करायी l  मैं उसके पास गयी l उस स्त्री ने बताया कि उसका बच्चा हॉस्पिटल में महीनों से भरती है l हम रोए, गले मिले, और उसकी बेटी के लिये प्रार्थना की l अपने मतभेदों को मिटाकर, अब हम अच्छे मित्र थे l

मत्ती 18 में, यीशु स्वर्गिक राज्य की तुलना एक राजा से करता है जो हिसाब करना चाहता है l एक अत्यधिक कर्ज़दार दास ने दया माँगी l राजा द्वारा क्षमा मिलने पर उसने अपने एक कर्ज़दार व्यक्ति को दोषी ठहराया जो राजा के प्रति उससे कम कर्ज़दार था l राजा ने, क्षमा नहीं करने के कारण दुष्ट दास को कैद कर दिया (पद. 23-34) l

क्षमा करने का चुनाव पाप की अनदेखी नहीं है, गलतियों को बहाना नहीं मानता, अथवा हमारी क्षति को कम नहीं करता l क्षमा केवल परमेश्वर की अनर्जित करुणा का आनंद लेने में मदद करता है, जब हम उसको अपने जीवनों और हमारे संबंधों में शांति अर्थात अनुग्रह के कार्य करने देते हैं l  

जब हाँ का अर्थ नहीं हो

मैं कैंसर(leukemia) पीड़ित माँ की सेवा कर सकी, परमेश्वर को धन्यवाद l दवाइयों के दुष्प्रभाव से उन्होंने इलाज बंद कर दी l “मैं और कष्ट नहीं झेल सकती,” वह बोली l “मैं अंतिम दिनों में अपने परिवार के साथ आनंदित रहना चाहती हूँ l परमेश्वर जानता है कि मैं घर जाने को तैयार हूँ l”

मुझे अपने स्वर्गिक पिता, महावैध के आश्चर्यकर्म पर भरोसा था l किन्तु मेरी माँ की प्रार्थना का उत्तर हाँ में देने के लिए उसे मुझसे नहीं कहना होता l रोते हुए मैंने हार मान ली, “प्रभु, आपकी इच्छा पूरी हो l”

जल्द ही, यीशु ने मेरी माँ को अकष्टकर अनंत में बुला लिया l

हम पतित संसार में यीशु की वापसी तक दुःख सहेंगे (रोमि.8:22-25) l हमारा पापी स्वभाव, सीमित दृष्टि, और दुःख का भय प्रार्थना करने को कुरूप कर सकता है l धन्यवाद हो, “मनों का जांचनेवाला जानता है कि आत्मा की मनसा क्या है? (पद.27) l वह हमें याद दिलाता है कि परमेश्वर से प्रेम रखनेवालों के लिए सब बातें मिलकर भलाई उत्पन्न करती हैं (पद.28), उस समय भी जब किसी के लिए उसकी हाँ हमारे लिए दुःख भरा नहीं हो l

हम उसके महान उद्देश्य हेतु अपना छोटा भाग स्वीकार करके, मेरी माँ का नारा दोहरा सकते हैं : “परमेश्वर भला है, बस l उसकी इच्छा में मुझे शांति है l” प्रभु की भलाईयों में भरोसा रखकर, हम प्रार्थना के उत्तर में उसकी इच्छा और महिमा देखते हैं l