3 अप्रैल, 1968 की रात को, डॉ. मार्टिन लूथर किंग ने अपना अंतिम भाषण दिया, “मैं माउंटेनटॉप(पर्वत की चोटी) पर जा चुका हूँ l” उसमें, वे संकेत देते हैं कि उन्हें विश्वास है कि वह शायद लम्बे समय तक जीवित नहीं रहने वाले थे l उन्होंने कहा, “हमारे आगे कुछ मुश्किल दिन हो सकते हैं l लेकिन अभी मेरे साथ इसका कोई मतलब नहीं है l क्योंकि मैं माउंटेनटॉप(पर्वत की चोटी) पर जा चुका हूँ l और मैं उस पार देख चुका हूँ l और मैं प्रतिज्ञात देश देख चुका हूँ l मैं शायद आपके . . .  साथ वहां न पहुँचूँ [लेकिन] आज रात मैं खुश हूँ l मुझे किसी बात की चिंता नहीं है l मैं किसी भी आदमी से नहीं डरता l मेरी आँखों ने प्रभु के आने की महिमा को देखी है l” अगले दिन, उनकी हत्या कर दी गयी l 

प्रेरित पौलुस, अपनी मृत्यु से कुछ समय पूर्व, अपने उत्तरजीवी तीमुथियुस को लिखा : “मैं अर्घ के समान उंडेला जाता हूँ, और मेरे कूच का समय आ पहुँचा है l . . . भविष्य में मेरे लिए धर्म का वह मुकुट रखा हुआ है, जिसे प्रभु, जो धर्मी और न्यायी है, मुझे उस दिन देगा” (2 तीमुथियुस 4:6,8) l पौलुस जानता था कि पृथ्वी पर उसका समय समाप्ति की ओर था, जैसा कि डॉ. किंग का भी था l दोनों पुरुषों को अविश्वसनीय महत्त्व के जीवन का अहसास हुआ, फिर भी आगे के सच्चे जीवन से दृष्टि नहीं हटाई l दोनों पुरुषों ने आगे आने वाली बात का स्वागत किया l 

उनके समान, हम भी “देखी हुयी वस्तुओं को नहीं परन्तु अनदेखी वस्तुओं को देखते [रहें]; क्योंकि देखी हुयी वस्तुएं थोड़े ही दिन की हैं, परन्तु अनदेखी वस्तुएं सदा बनी रहती हैं” (2 कुरिन्थियों 4:18) l