किशोर उम्र कभी-कभी जीवन में सबसे अधिक दुखदायी कालों में से होती है──माता-पिता और बच्चे दोनों की लिए l मेरी माँ से एक “अलग पहचान” बनाने का मेरा प्रयास में, मैंने खुलकर उनके आदर्शों का इनकार किया और उनके नियमों के विरुद्ध विद्रोह किया, इस शक में कि उनका उद्देश्य केवल मुझको और दुखी बनाना था l यद्यपि हम अब उन विषयों पर सहमत हैं, हमारे रिश्तों में वह समय तनाव से भरपूर था l कोई शक नहीं कि माँ के निर्देशों की गंभीरता का मेरे द्वारा इंकार करना उन्हें दुखित करता था, यह जानते हुए कि वे मुझे व्यर्थ भावनात्मक और भौतिक पीड़ा से बचा सकती थीं l 

परमेश्वर के पास अपनी संतान, इस्राएल के लिए उसी तरह का हृदय था l जिसे हम दस आज्ञाओं के रूप में जानते हैं उसमें जीने के लिए परमेश्वर ने अपनी बुद्धि प्रदान की (व्यवस्थाविवरण 5:7-21) l यद्यपि उन्हें नियमों की सूची के रूप में देखा जा सकता है, परमेश्वर की मनसा मूसा को दिए गए उसके शब्दों से प्रगट है : “जिससे उनकी और उनके वंश की सदैव भलाई होती रहे” (पद.29) l मूसा ने यह कहते हुए परमेश्वर की इच्छा पहचान लिया, कि आज्ञा मानना प्रतिज्ञात देश में उनके साथ उसकी निरंतर उपस्थिति के आनंद में परिणित होगा (पद.33) l 

हम सब परमेश्वर के साथ “युवा” काल से होकर निकलते हैं, भरोसा किये बिना कि जीवन के लिए उसकी मार्गदर्शिका वास्तव में हमारी भलाई के लिए है l हम इस अनुभूति में बढ़ते जाएँ कि वह हमारे लिए सर्वोत्तम चाहता है और उसके द्वारा प्रस्तावित बुद्धि पर चलना सीखें l उसके मार्गदर्शन का उद्देश्य हमें आत्मिक परिपक्वता में ले चलना है जब हम और भी यीशु के समान बनते जाते हैं (भजन 119:97-104; इफिसियों 4:15; 2 पतरस 3:18) l