छोटे रूप में अंधकार का मुकाबला करने के लिए कृतसंकल्प, लीसा ने एक बड़े कद्दू पर परमानेंट मार्कर से उन बातों को लिखना आरम्भ किया जिसके लिए वह धन्यवादी थी l “धूप(sunshine)” पहला विषय था l जल्द ही आगंतुक उसकी सूची में जोड़ना शुरू कर दिए l कुछ एक प्रविष्ठियाँ मनमौजी थीं : उदाहरण के लिए अर्थहीन अंकन(doodling) l दूसरे व्यवहारिक थे : “एक गर्म घर”; “एक चलती कार l” और भी लोग मर्मस्पर्शी थे, जैसे कि एक प्रिय दिवंगत का नाम l धन्यवाद की एक श्रृंखला धीरे-धीरे उस कद्दू के चारों-ओर पहुँचने लगे l 

भजन 104 उन वस्तुओं के लिए प्रशंसा की एक सूची प्रस्तुत करता है जिसे हम अक्सर नज़रंदाज़ कर देते हैं l “[परमेश्वर] नालों में सोतों को बहाता है,” लेखक कहता है (पद.10) l “तू पशुओं के लिए घास, और मनुष्यों के काम के लिए अन्न आदि उपजाता है” (पद.14) l रात को भी अच्छा और उपयुक्त देखा गया है l “तू अंधकार करता है, तब रात हो जाती है; जिस में वन के सब जीव-जन्तु धूमते फिरते हैं” (पद.20) l लेकिन उसके बाद, “सूर्य उदय [होता है] . . . तब मनुष्य अपने काम के लिए और संध्या तक परिश्रम करने के लिए निकालता है” (पद.22-23) l इन सब बातों के लिए, भजनकार अंत में लिखता है, “मैं जीवन भर यहोवा का गीत गाता रहूँगा” (पद.33) l  

ऐसे संसार में जो मृत्यु के साथ निपटना नहीं जानता, हमारे सृष्टिकर्ता की छोटी से छोटी प्रशंसा की पेशकश भी आशा का चमकदार निरूपण हो सकता है l