डरो मत!
लगभग हर वक्त जब बाइबल में एक स्वर्गदूत प्रगट होता है, उसके प्रथम शब्द होते हैं “डरो मत!” छोटा आश्चर्य l जब अलौकिक, ग्रह पृथ्वी से संपर्क करता है, देखनेवाले मानव भय के मारे अपने मुहं के बल होते हैं l किन्तु लूका परमेश्वर का प्रगटन इस रूप में बताता है जो भयभीत नहीं करता l यीशु में, जो पशुओं के बीच जन्म लिया और जिसे चरनी में लिटाया गया, परमेश्वर ऐसे प्रवेश करता है जहाँ हमें डरने की ज़रूरत नहीं है l क्या एक नवजात शिशु से कम भयभीत करनेवाला कोई हो सकता है?
पृथ्वी पर यीशु परमेश्वर और मनुष्य दोनों ही है l परमेश्वर होकर, वह आश्चर्यकर्म कर सकता है, पाप क्षमा कर सकता है, मृत्यु को पराजित कर सकता है, और भविष्य बता सकता है l किन्तु यहूदियों के लिए जो परमेश्वर को एक चमकीला बादल या एक अग्नि स्तम्भ की छवि के रूप में देखने के आदि थे, यीशु गड़बड़ी भी पैदा करता है l बैतलहम का एक शिशु, एक बढ़ई का बेटा, नासरत का एक मनुष्य परमेश्वर की ओर से एक उद्धारकर्ता कैसे हो सकता है?
परमेश्वर मानव रूप क्यों लिया? मंदिर में रब्बियों के साथ चर्चा करनेवाला बारह वर्ष का यीशु हमें एक सुराग देता है l “जितने उसके सुन रहे थे, वे सब उसकी समझ और उसके उत्तरों से चकित थे” लूका कहता है (2:47) l पहली बार, साधारण लोग प्रत्यक्ष रूप में परमेश्वर के साथ बातचीत कर पा रहे थे l
यीशु किसी से भी बताए बिना बातचीत कर सकता था-अपने मातापिता से, एक रब्बी से, एक निर्धन विधवा से l “डरो मत!” यीशु में परमेश्वर निकट आ गया l
प्रभु बोलते हैं
दुनिया में दुख क्यों है इसपर लगभग प्रत्येक तर्क हमें अय्यूब की पुस्तक में मिल जाएगा, परन्तु तर्क करना अय्यूब की मदद नहीं करता। उसका संकट संदेह से बढ़कर है-संबंधों का। क्या वह परमेश्वर पर भरोसा कर सकता है? सब से बढ़कर अय्यूब चाहता है: ऐसा कोई जो उसके दुर्भाग्य का कारण बता सके। वह परमेश्वर से स्वयं मिलना चाहता है, आमने-सामने।
अंततः, परमेश्वर स्वयं अय्यूब से मिलते हैं (अय्यूब 38:1)। जब एलीहू विस्तार से अय्यूब को समझा रहा था कि उसे परमेश्वर से मिलने की इच्छा करने का अधिकार क्यों नहीं है तभी परमेश्वर आते हैं।
न तो अय्यूब-नाही उसका कोई मित्र- उसके लिए तैयार है जो परमेश्वर कहने जा रहे हैं। अय्यूब के प्रश्नों की सूची लंबी थी, परन्तु प्रश्न पूछने वाले परमेश्वर हैं, अय्यूब नहीं। आरंभ करते हुए वह कहते हैं "पुरुष की नाईं अपनी...(पद 3) "। दुख की समस्या पर पैंतीस अध्यायों तक चलने वाली बहस के उत्तर में, परमेश्वर प्राकृतिक संसार में बसे चमत्कारों पर एक भव्य कविता कहते हैं।
परमेश्वर का वचन सृष्टि के रचयिता और अय्यूब जैसे निर्बल व्यक्ति के बीच के विशाल अंतर को परिभाषित करता है। उनकी उपस्थिति अय्यूब के सबसे बड़े प्रश्न का उत्तर देती है: क्या कोई है? अब अय्यूब केवल यही कह सकता है, "परन्तु मैं ने तो..." (42:3) "।
ख़ामोशी तोड़ना
पुराने नियम के अंत में, परमेश्वर शांत दिखाई देता है l चार सौ वर्षों तक यहूदी इंतज़ार करते हैं और चकित होते हैं l ऐसा महसूस हो रहा था जैसे परमेश्वर निष्क्रिय, बेखबर, और उनकी प्रार्थनाओं के प्रति अपने कान बंद कर लिये थे l केवल एक आशा बाकी थी : उद्धारकर्ता के आने की प्राचीन प्रतिज्ञा l उसी प्रतिज्ञा पर यहूदी लोग सब कुछ आधारित करते थे l और उसी समय कुछ महत्वपूर्ण बात होती है l एक बालक के जन्म की घोषणा होती है l
आप लूका के सुसमाचार में लोगों के प्रतिउत्तर को पढ़कर उनकी उत्तेजना को महसूस कर सकते हैं l यीशु के जन्म के समय की घटनाएं एक आनंद भरा संगीत सा लगता है l अनेक चरित्र दृश्य में दिखाई देते हैं : एक बूढ़े चाचा (लूका 1:5-25), एक चकित कुवांरी (1:26-38), एक बूढ़ी नबिया, हन्ना (2:36) l मरियम एक सुन्दर गीत गाती है (1:46-55) l यीशु का एक चचेरा भाई जो अभी जन्म नहीं लिया है, अपनी माँ के गर्भ में आनंद से उछल पड़ता है (1:41) l
लूका इन घटनाओं को उद्धारकर्ता के विषय पुराने नियम में लिखी बातों से सीधे जोड़ता है l जिब्राइल स्वर्गदूत यूहन्ना बप्तिस्मा देनेवाले को “एलिय्याह” भी संबोधित करता है जो प्रभु का मार्ग तैयार करने भेजा गया था (1:17) l स्पष्ट रूप से पृथ्वी पर कुछ हो रहा था l रोमी साम्राज्य के एक एकांत गाँव में निराश, पराजित ग्रामीणों के मध्य कुछ अच्छा होने जा रहा है l
उत्तम पृथ्वी
अन्तरिक्ष यान अपोलो 8 के अन्तरिक्ष यात्री बिल एंडर्स 1968 में चंद्रमा की परिक्रमा करते हुए कर्मी-दल द्वारा चन्द्रमा की धरती के बड़े और पास के दृश्यों का वर्णन किया l उन्होंने उसे “अनिष्ट दर्शन की सीमा ... एक कठोर, और देखने का अनाकर्षक स्थान कहा l” उसके बाद कर्मियों ने बारी-बारी से देख रहे संसार के समक्ष उत्पत्ति 1:1-10 से पढ़ा l कमांडर फ्रैंक बोर्मन ने पद 10, “और परमेश्वर ने देखा की अच्छा है,” को पढ़ कर इस कथन से समाप्त किया, “परमेश्वर आप सभों को आशीष दे, इस अच्छी पृथ्वी पर आप सभों को आशीष दे l”
बाइबिल का आरंभिक अध्याय दो तथ्यों पर बल देता है :
सृष्टि परमेश्वर का कार्य है l वाक्यांश “और परमेश्वर ने कहा ...,” लय के साथ पूरे अध्याय में दिखाई देता है l सम्पूर्ण भव्य संसार जिसमें हम निवास करते हैं उसके हाथ का रचनात्मक कार्य है l बाइबिल की बाकी बातें उत्पत्ति 1 की बातों की पुनः पुष्टि करते हैं l सम्पूर्ण इतिहास की पृष्ठभूमि में, परमेश्वर है l
सृष्टि अच्छी है l इस अध्याय में एक और वाक्य लय के साथ गूंजती है l “और परमेश्वर ने देखा कि अच्छा है l” सृष्टि के उस पहले क्षण से बहुत कुछ बदल गया है l उत्पत्ति 1 संसार का ऐसा वर्णन करती है जैसा परमेश्वर इसके बिगड़ने से पूर्व चाहता था l आज हम प्रकृति में जो खूबसूरती देखते हैं वह परमेश्वर की सृष्टि की पूर्व अवस्था की एक धुंधली छाया है l
अपोलो 8 के अतरिक्ष यात्रियों ने पृथ्वी को आकाश में अकेले लटके हुए एक चमकीले रंगीन गेंद की तरह देखा l तुरंत ही वह उन्हें विस्मयकारी सुन्दर और कोमल दिखाई दिया l वह उत्पत्ति 1 में जैसा था वैसा ही दिखायी दिया l
समाज निर्माण
हेनरी नोवेन कहते हैं, “समाज” ऐसा स्थान है जहाँ वह व्यक्ति जिसके साथ आप शायद ही रहना पसंद करें हमेशा आपके साथ रहता है, l अक्सर हम अपने पसंदीदा लोगों के चारों ओर रहते हैं, जो एक क्लब अथवा गुट होता है, समाज नहीं l कोई भी क्लब बना सकता है; समाज निर्माण में मनोहरता, सहभाजी दर्शन, और मेहनत चाहिए l
इतिहास में मसीही कलीसिया यहूदी और गैर-यहूदी, पुरुष और स्त्री, दास और स्वतंत्र को बराबरी का दर्जा देनेवाली प्रथम व्यवस्था थी l प्रेरित पौलुस ने यह “भेद ... जो ... परमेश्वर में आदि से गुप्त था” की सार्थकता बतायी l पौलुस ने कहा कि विविध सदस्यों को मिलाकर एक समाज के निर्माण से, हमारे पास संसार के ध्यान के साथ-साथ पार अलौकिक संसार का ध्यान भी आकर्षित करने का अवसर है (इफि. 3:9-10) l
कलीसिया इस कार्य में कई तरीके से दुर्भाग्यवश पराजित हुई है l फिर भी, कलीसिया ही एकमात्र स्थान है जहाँ मैं पीढ़ियों को एक साथ आते देखता हूँ : नवजात जो अभी भी माताओं की बाहों में हैं, समस्त गलत समय में कसमसाते और खीस दिखाते बच्चे, जिम्मेदार व्यस्क जो हर समय उचित कार्य करना जानते हैं, और वे जो उपदेशक के लम्बे सन्देश देने पर सो जाते हैं l
यदि हम सामाजिक अनुभव चाहते हैं जो परमेश्वर हमें देना चाहता है, हमारे पास “अपने से भिन्न” लोगों की मण्डली खोजने का कारण है l
संपूर्ण अनुग्रह
यीशु ने कभी भी परमेश्वर के सिद्ध आदर्श को कम नहीं किया l धनी युवक को उत्तर देते समय, उसने कहा, “तुम सिद्ध बनो, जैसा तुम्हारा स्वगीय पिता सिद्ध है” (मत्ती 5:48) l सबसे महान आज्ञा के विषय पूछने वाले व्यवस्थापक से उसने कहा, “तू परमेश्वर अपने प्रभु से अपने सारे मन और अपने सारे प्राण और अपनी सारी बुद्धि के साथ प्रेम रख” (22:37) l किसी ने इन आज्ञाओं को पूरी तरह नहीं माना l
फिर भी वही यीशु ने कोमलता से सम्पूर्ण अनुग्रह दिया l उसने व्यभिचारिणी को, क्रूस पर एक चोर को, उसे पूर्णरूपेण अस्वीकार करनेवाले एक शिष्य को, और शाऊल नामक एक व्यक्ति, जो मसीहियों का सतानेवाला बन गया था, को क्षमा किया l अनुग्रह सम्पूर्ण है और यीशु को क्रूसित करने वालों तक पहुंचा l “हे पिता, इन्हें क्षमा कर, क्योंकि ये जानते नहीं कि क्या कर रहे हैं” इस पृथ्वी पर कहे गए उसके कुछ अंतिम शब्द थे (लूका 23:34) l
वर्षों तक मैंने यीशु के सम्पूर्ण आदर्शों पर विचार करते समय खुद को अत्यधिक अयोग्य समझा कि मैं उस अनुग्रह के किसी-न-किसी अभिप्राय से चुक गया l एक बार, हालाँकि, इस दोहरे सन्देश को समझकर मैंने लौटकर महसूस किया कि अनुग्रह का सन्देश यीशु के जीवन और शिक्षाओं में भरपूर था l
अनुग्रह आशाहीन, ज़रूरतमंद, टूटे हुओं के लिए है, जो अपने आप में अयोग्य हैं l अनुग्रह हमारे लिए है l
परमेश्वर का चेहरा
लेखक के रूप में मेरी अधिकतर जीविका दुःख की समस्या के चारों-ओर घूमती रही l मैं ऊँगली द्वारा एक नासूर को छेड़ने जैसे प्रश्नों की ओर बार-बार उन्हीं लौटता l मैं अपने पाठकों से सुनता हूँ, और उनकी दुखद कहानियाँ मेरे संशय को वास्तविक बनाती हैं l मुझे एक युवा पासवान का प्रश्न याद है जिसकी पत्नी और छोटी बेटी दूषित रक्त चढ़ाने से एड्स से मर रहे हैं l “मैं अपने युवा समूह से एक प्रेमी परमेश्वर के विषय कैसे बातचीत कर सकता हूँ l” l
मैं इस तरह के “क्यों” प्रश्नों का उत्तर नहीं देने का प्रयास करना सीख लिया है : क्यों युवा पासबान की पत्नी को एक बोतल दूषित रक्त चढ़ाया गया? क्यों तूफ़ान एक शहर को तबाह करता है, दूसरे को नहीं? क्यों शारीरिक चंगाई की प्रार्थना अनसुनी होती है?“
क्या परमेश्वर चिंतित है?” केवल एक ही उत्तर है, यीशु l यीशु में परमेश्वर ने एक चेहरा दिया l परमेश्वर अपने इस कराहते संसार में दुःख के विषय क्या सोचता है? यीशु को देखें l
“क्या परमेश्वर चिंतित है?” परमेश्वर पुत्र की मृत्यु, जो आखिरकार दर्द, दुःख, पीड़ा, और मृत्यु को हमेशा के लिए समाप्त कर देगी, ही उस प्रश्न का उत्तर है l “इसलिए कि परमेश्वर ही है, जिसने कहा, “अंधकार में से ज्योति चमके,” और वही हमारे हृदयों में चमका कि परमेश्वर की महिमा की पहिचान की ज्योति यीशु मसीह के चेहरे से प्रकाशमान हो” (2 कुरिन्थियों 4:6) l
क्या मैं महत्वपूर्ण हूँ?
मैं एक सुपर-मार्किट में भुगतान करने खड़ा चारों-ओर देख रहा हूँ l मैं सर मुंडाए और नाक में नथ पहने किशोरों को अल्पाहार/स्नैक लेते, एक युवा व्यवसायी को एक टिक्का, कुछ नागदौन की टहनियां, और शकरकंद खरीदते देखता हूँ; एक बुज़ुर्ग स्त्री आड़ू और स्ट्रॉबेरी देख रही है l क्या परमेश्वर नाम से इनको जानता है? क्या ये लोग उसके लिए महत्वपूर्ण हैं?
सारी सृष्टि के परमेश्वर ने मनुष्य को बनाया, और हम उसके व्यक्तिगत ध्यान और प्रेम के योग्य हैं l परमेश्वर ने उस प्रेम को व्यक्तिगत रूप से इस्राएल के बदसूरत पहाड़ी और आखिरकार क्रूस पर दिखाया l
जब यीशु दास बनकर पृथ्वी पर आया, उसने दर्शाया कि परमेश्वर का हाथ संसार के सबसे छोटे व्यक्ति के लिए बहुत शेखी मारनेवाला नहीं है l उस हाथ में हमारे व्यक्तिगत नाम खुदे हैं और घाव हैं, हमसे अत्यधिक प्रेम के लिए परमेश्वर द्वारा चुकाई हुई कीमत l
अब, जब मैं खुद को आत्म-ग्लानी, अकेलेपन के दर्द से अभिभूत पाता हूँ, जो अय्यूब और सभोपदेशक की पुस्तक में खूबसूरती से वर्णित है, मैं सुसमाचार में यीशु की कहानियों और कार्यों की ओर मुड़ता हूँ l यदि मैं इस निश्चय पर पहुँचता हूँ कि मेरा अस्तित्व “धरती पर” परमेश्वर के लिए अर्थहीन है, मैं परमेश्वर के इस धरती पर आने के मुख्य कारण का विरोधी हूँ l निश्चित तौर पर क्या मैं महत्वपूर्ण हूँ? प्रश्न का उत्तर यीशु है l
परस्पर सहायता
“मसीह की देह” एक रहस्मय वाक्यांश है जो नए नियम में 30 से अधिक बार उपयोग किया गया है l प्रेरित पौलुस विशेषकर कलीसिया का रूप दर्शाने हेतु यह वाक्यांश चुना l यीशु अपने स्वर्गारोहण बाद अपने मिशन को कमज़ोर और अनाड़ी लोगों को सौंप दिया l वह कलीसिया का सिर होकर, हाथ, पैर, कान, आँख और आवाज़ के काम…