आमने-सामने
यद्यपि संसार आज इलेक्ट्रानिक तरीके से जिस तरह जुड़ा है, पूर्व में कभी नहीं था, व्यक्तिक रूप से बिताया गया समय सर्वोत्तम है l हम सहभागिता और खिलखिलाहट द्वारा-लगभग अनजाने में-अगले व्यक्ति के चेहरे की गत्विधियों को देखकर उसकी भावनाएं जान जाते हैं l जो आपस में प्रेम करते हैं, चाहे परिवार या मित्र, आमने-सामने संगति करना चाहते हैं l
हम इस तरह का आमने-सामने का सम्बन्ध परमेश्वर और उसके लोगों की अगुवाई करने वाले, मूसा के मध्य देखते हैं l मूसा परमेश्वर का अनुसरण करता गया, और लोगों के अक्खड़पन और मूर्तिपूजा के बावजूद उसका अनुसरण करता रहा l लोगों द्वारा प्रभु के बदले सोने के बछड़े की उपासना करने के बाद (देखें निर्ग. 32), मूसा ने परमेश्वर से मुलाकात करने हेतु एक तम्बू लगाया, जबकि लोग दूर ही से देख सकते थे (33:7-11) l जब परमेश्वर की उपस्थिति बादल के खम्बे में तम्बू पर आकर ठहरता था, मूसा उनका प्रतिनिधि होकर बातें करता था l परमेश्वर ने उनके साथ अपनी उपस्थिति का वादा किया (पद.14) l
यीशु की क्रूसित मृत्यु और पुनरुत्थान के कारण, हमें परमेश्वर से बातें करने के लिए मूसा की तरह व्यक्ति नहीं चाहिए l इसके बदले, शिष्यों के सामने यीशु की पेशकस की तरह, हम मसीह द्वारा परमेश्वर के साथ मित्रता कर सकते हैं (यूहन्ना 15:15) l हम भी उससे मुलाकात कर सकते हैं, प्रभु के साथ मित्र की तरह बातें कर सकते हैं l
अन्तरंग विवरण
सृष्टि आश्चर्यजनक ढंग से भव्य है l इस समय चन्द्रमा हमारे चारों ओर 2,300 मील प्रति घंटे की गति से और पृथ्वी सूर्य के चारों ओर 66,000 मील प्रति घंटे की गति से घूम रही है l हमारा सूर्य असंख्य दूसरे तारों और ग्रहों के तारा समूह में एक है, और वह तारा समूह घूमते हुए असंख्य दूसरे तारा समूहों में एक है l चौंकानेवाला!
इस विस्तृत कायनात की तुलना में, हमारी पृथ्वी एक कंकड़ से बड़ी नहीं है, और हमारे जीवन रेत कण समान हैं l फिर भी वचनानुसार, इन तारों के समूह का परमेश्वर हममें से प्रत्येक सूक्ष्म प्राणी का अन्तरंग जानकारी रखता है l हमारे अस्तित्व से पूर्व उसने हमें देखा (भजन 139:13-16); वह हमारे दिनचर्या को जानता और हर विचार सुनता है (पद. 1-6) l
कभी-कभी यह अविश्वसनीय लगता है l इस छोटे “कंकड़” में युद्ध और अकाल जैसी बड़ी समस्याएँ हैं और हम व्यक्तिगत दुःख में परमेश्वर की देखभाल पर प्रश्न उठा सकते हैं l किन्तु भजन 139 लिखते समय राजा दाऊद स्वयं संकट में था (पद.19-20)l और जब यीशु ने कहा कि परमेश्वर हमारे सिर का एक-एक बाल गिनता है (मत्ती 10:30), वह क्रूसीकरण के युग में था l परमेश्वर की देखभाल से सम्बंधित बाइबिल के विचार मूर्ख अभिलाषा नहीं वास्तविक संसार की सच्चाई है l
जगत को चलानेवाला हमें निकटता से जानता है l यह कठिन समय में हमारी सहायता कर सकता है l
परमेश्वर के निकट जाना
प्रार्थना को इच्छुक एक स्त्री ने एक कुर्सी खींचकर उसके आगे घुटने टेक ली l “रोते हुए, वह बोली, “मेरे स्वर्गिक पिता, मेरे निकट बैठिये; हम दोनों को बात करना ज़रूरी है!” तब, खाली कुर्सी की ओर देखकर, उसने प्रार्थना किया l उसने परमेश्वर के निकट जाने में भरोसा जताया; उसने परमेश्वर को कुर्सी पर बैठे हुए कल्पना करके विश्वास की कि वह उसका निवेदन सुन रहा है l
परमेश्वर के साथ समय एक विशेष क्षण होता है जब हम सर्वशक्तिमान को उसमें शामिल करते हैं l एक आपसी भागीदारी में जब हम परमेश्वर के निकट जाते हैं (याकूब 4:8) l वह भी हमारे निकट आता है l उसने हमें आश्वस्त किया है, “मैं ... सदा तुम्हारे संग हूँ” (मत्ती 28:20) l हमारा स्वर्गिक पिता सदेव हमारा इंतज़ार करके हमारी सुनना चाहता है l
कितनी बार थके, निद्रालु, बीमार, और निर्बल होने के कारण हम प्रार्थना करने में संघर्ष करते हैं l किन्तु यीशु हमारी दुर्बलता और परीक्षाओं में हमसे सहानुभूति रखता है (इब्रा. 4:15) l इसलिए हम “अनुग्रह के सिंहासन के निकट हियाव बांधकर चलें कि हम पर दया हो, और वह अनुग्रह पाएँ जो आवश्यकता के समय हमारी सहायता करे (पद.16) l
यीशु को सौंपना
उनके अनुसार वह “शैतान के पदचिन्ह” हैं l मेसाचुसेट्स, इपस्विच में चर्च के निकट एक पहाड़ के पत्थर पर एक पैर सा निशान है l स्थानीय दन्तकथा अनुसार “पदचिन्ह” 1740 में बना जब प्रचारक जॉर्ज वाइटफील्ड द्वारा शरद् ऋतू के एक दिन प्रबल उपदेश देने पर शैतान चर्च की चोटी से पत्थर पर कूदकर शहर से भागा l
यद्यपि यह एक दन्त कथा है, इसमें परमेश्वर के वचन का उत्साहवर्धक सत्य है l याकूब 4:7 स्मरण दिलाता है, “शैतान का सामना करो, तो वह तुम्हारे पास से भाग निकलेगा l”
परमेश्वर ने हमारे शत्रु और हमारे जीवनों में परीक्षाओं का सामना करने हेतु हमें समर्थ किया है l बाइबिल कहती है कि यीशु मसीह द्वारा परमेश्वर के स्नेही अनुग्रह से “तुम पर पाप की प्रभुता न होगी” (रोमि. 6:14) l परीक्षा के समय यीशु की ओर दौड़ने पर, वह हमें अपनी सामर्थ्य में खड़े होने के योग्य करता है l हमारे द्वारा सामना की जानेवाली कुछ भी उसको पराजित नहीं कर सकती, क्योंकि उसने “संसार को जीत लिया है” (यूहन्ना 16:33) l
जब हम अपने उद्धारकर्ता के समक्ष खुद को समर्पित कर उस क्षण अपनी इच्छा छोड़ कर परमेश्वर के वचन के प्रति आज्ञाकारी होते हैं, वह हमारी मदद करता है l जब हम परीक्षा में न पड़कर, खुद को यीशु को समर्पित करते हैं, वह हमारे युद्ध में मदद करेगा l उसमें हम जय पा सकते हैं l
बच निकलना
शरद ओलंपिक्स 2004 में यूटाह में हुआ था l कनाडा के क्षेत्र-पार स्की करनेवाली बेकी स्कॉट उस समय काँस्य पदक जीती थी l दो अयोग्य खिलाड़ियों को महीनों बाद वर्जित पदार्थ सेवन के कारण अयोग्य होने पर, जून 2004 में, वैंक्यूवर आर्ट गैलरी में, स्कॉट को ओलिंपिक स्वर्ण पदक मिला l
आख़िरकार स्कॉट को अपना स्वर्ण मिल गया, किन्तु वह मंच पर खड़ी होकर राष्ट्रगान बजते हुए सुनने से रह गई l अन्याय का हल नहीं निकला l
अन्याय तकलीफ़देह होते हैं, और मेहनत से जीते गए पदक से वंचित होने से भी बड़े अन्याय हैं l कैन और हाबिल की कथा अन्याय की चरम क्रिया है (उत्प. 4:8) l और प्रथम झलक में ऐसा लग सकता है कि वह भाई की हत्या करके बच गया l आख़िरकार, वह लम्बी आयु और पूरा जीवन जीकर, एक नगर भी बसाया (पद.17) l
किन्तु स्वयं परमेश्वर ने कैन का सामना किया l उसने कहा, “तेरे भाई का लहू ... चिल्लाकर मेरी दोहाई दे रहा है” (पद.10) l नया नियम कैन के उदाहरण से बचने को कहता है (1 यूहन्ना 3:12; यहूदा 1:11) l किन्तु हाबिल के विषय, “विश्वास ही से हाबिल ... मरने पर भी अब तक बातें करता है” (इब्रा. 11:4) l
परमेश्वर न्याय, निर्बलों का बचाव, और अन्याय को दण्डित करता है l अंत में, अन्याय करके कोई बच नहीं सकता l और विश्वास द्वारा किया गया कार्य परमेश्वर द्वारा पुरस्कृत होता है l
आनंदित हृदय
मेरी नातिन का पसंदीदा सुर जॉन फ़िलिप सौसा का एक प्रयाण गीत(marching tune) है l 19 वीं शताब्दी में, सौसा, “सेना प्रयाण” का अमरीकी रचयिता और बैंड मास्टर था l मोरियाह प्रयाण बैंड में नहीं है; वह केवल 20 महीने की है l वह इस सुर को पसंद करती है और कुछ एक सुर को गुनगुनाती भी है l यह उसके लिए आनंदित समय होता है l हमारे पारिवारिक मिलन के समय, हम इस गीत को तालियों और दूसरी प्रबल आवाजों के साथ गुनगुनाते हैं, और नाती-पोते इसके ताल पर नाचते अथवा गोल-गोल घूमकर परेड करते हैं l
हमारे आनंदित स्वर हमें उस भजन का स्मरण कराते हैं जो हमसे “आनंद से यहोवा की आराधना” करने को कहते हैं (भजन 100:2) l जब सुलेमान ने मंदिर का अर्पित किया, इस्राएलियों ने प्रशंसा के साथ उत्सव मनाया (2 इतीहास 7:5-6) l भजन 100 उनका एक गीत रहा होगा l भजन घोषणा करता है : हे सारी पृथ्वी के लोगों, यहोवा का जयजयकार करो ! ... उसके फाटकों से धन्यवाद, और उसके आँगनो में स्तुति करते हुए प्रवेश करो, उसका धन्यवाद करो, और उसके नाम को धन्य कहो ! (पद. 1,4) l क्यों? “क्योंकि यहोवा भला है, उसकी करुणा सदा के लिए [है]! (पद.5) l
हमारा भला परमेश्वर हमसे प्रेम करता है ! कृतज्ञ प्रतिउत्तर में, आइये “जयजयकार” [करें] ! (भजन 100:1) l
विश्राम दिवस
एक रविवार को, मैं एक कलकल नदी के निकट खड़ी थी जो हमारी उत्तरी लन्दन आबादी क्षेत्र की ओर मुड़कर अपनी ख़ूबसूरती भिन्न प्रकार से बसे क्षेत्र को प्रदान करती है l जलप्रपात को देखकर और चिड़ियों की चहचाहट सुनकर मुझे आराम मिला l मैंने रुककर प्रभु को हमारी आत्माओं को विश्राम देने के लिए धन्यवाद दिया l
प्रभु ने सब्त का दिन स्थापित किया-विश्राम और नवीनीकरण का दिन-अपने लोगों के लिए प्राचीन निकट पूर्व क्योंकि उसकी इच्छा थी कि वे जीवित रहें l जैसे कि हम निर्गमन में पाते हैं, वह उनको छः वर्ष खेती करने को और सातवें वर्ष विश्राम करने को कहता है l इसी तरह छः दिन काम और सातवें दिन विश्राम l उसके तरीके ने इस्राएलियों को अन्य राष्ट्रों से अलग किया, क्योंकि केवल वे ही नहीं किन्तु विदेशी और उनके घर के दासों को भी उनके तरीके मानना अनुमत था l
हम विश्राम दिवस में अपेक्षा और रचनात्मकता के साथ उपासना करके अपनी आत्माओं को पोषित कर सकते हैं, जो हमारे चुनावों के अनुसार भिन्न होगा l कोई खेल खेलना पसंद करेंगे; कोई बगीचे में काम; कोई मित्रों और परिजनों के साथ भोजन करेंगे; कोई दोपहर में आराम करेंगे l
हम किस तरह विश्राम दिवस की खूबसूरती और भरपूरी को पुनः खोजेंगे, यदि वह हमारे जीवनों में नहीं है?
परम परमेश्वर
जमाइका में बढ़ते हुए, मेरे माता-पिता मेरी बहन और मुझको “अच्छे लोग” बनने में सहायता किये l हमारे घर में, अच्छा का अर्थ था माता-पिता के प्रति आज्ञाकारिता, सच बोलना, स्कूल और कार्य में सफल, और कम से कम ईस्टर और क्रिसमस में चर्च जाना l मेरे विचार से अच्छा व्यक्ति बनने की यह परिभाषा सभी संस्कृतियों में सामान्य है l वस्तुतः, प्रेरित पौलुस ने, फिलिप्पियों 3 में अच्छा बनने की अपनी संस्कृति की परिभाषा द्वारा एक बड़ी बात कही l
प्रथम शताब्दी का इमानदार यहूदी, पौलुस, अपनी संस्कृति में नैतिक व्यवस्था को मानता था l वह “सही” परिवार में जन्म लिया, “सही” शिक्षा पायी, “सही” धर्म को माना l वह यहूदी रिवाज़ के अनुसार सही व्यक्ति का वास्तविक नमूना था l पद 4 में पौलुस लिखता है कि वह अपने समस्त अच्छाईयों में घमंड कर सकता था l किन्तु, जितना भी वह अच्छा था, पौलुस ने अपने पाठकों से (और हमसे) कहा कि अच्छा होने के ऊपर कुछ और है l वह अच्छा होना जानता था, यद्यपि अच्छा बनना, परमेश्वर से प्रेम करना नहीं है l
पौलुस के अनुसार पद. 7-8 में यीशु को जानना परमेश्वर को प्रसन्न करना, है l पौलुस ने अपनी अच्छाइयों को “मसीह यीशु की पहिचान की उत्तमता” की तुलना में “कूड़ा” समझा l “हम अच्छे हैं-और हम परमेश्वर को प्रसन्न करते हैं-जब हमारी आशा और विश्वास केवल मसीह में है, अपनी अच्छाइयों में नहीं l
पहले जाना
हमने धीरज से अपने बेटे को ठीक होने और हमारे परिवार में अपने नए जीवन को अनुकूल बनाने में मदद की l एक अनाथालय में उसके आरंभिक दिनों का मानसिक आघात उसको नकारात्मक बना रहा था l जबकि मुझ में उसके आरंभिक दिनों की कठिनाइयों में अत्यधिक सहानुभूति थी, मैं भावनात्मक रूप से उसके व्यवहारों के कारण उससे खुद को अलग करना चाही l लज्जित होकर, मैंने उसके चिकित्सक से बताया l उसके कोमल उत्तर कठोर था : “वह चाहता है कि उसके प्रेम दिखने से पूर्व आप आगे बढ़कर उसे प्रेम दिखाएं l”
यूहन्ना परमेश्वर के प्रेम को परस्पर प्रेम का स्रोत और कारण बताते हुए पत्री के पानेवालों को प्रेम की अद्वितीय गहराई में ले जाता है (1 यूहन्ना 4:7,11) l मैं दूसरों को ऐसा प्रेम दिखाने में अक्षम हूँ, चाहे अजनबी, मित्र, अथवा मेरे अपने बच्चे हों l फिर भी यूहन्ना के शब्द मुझ में ऐसा करने की नूतन इच्छा और योग्यता उत्पन्न करते हैं : परमेश्वर आगे चला l उसने अपने पुत्र को भेजकर अपने प्रेम की सम्पूर्णता दर्शाया l मैं बहुत धन्यवादित हूँ कि वह हममें से अपना हृदय वापिस लेकर हमारे समान नहीं करता l
यद्यपि हमारे पापी भाव परमेश्वर के प्रेम को आमंत्रित नहीं करता, वह हमें देने में अटल है (रोमि. 5:8) l उसका “पहले जानेवाला” प्रेम उसके प्रेम हमें परस्पर प्रेम हेतु प्रतिउत्तर एवं प्रतिबिम्ब के रूप में विवश करता है l